श्रीमद्भगवदगीता सफलता, चरित्र निर्माण, व्यक्तीत्व विकास का विज्ञान (The Geeta Lesson 01)

श्रीमद भगवत गीता हजारो वर्षो से हम मानवो का बिना किसी पक्षपात और भेदभाव के हमारा मार्गदर्शन कर रही है, ये केवल सनातन धर्म की धार्मिक किताब नही अपितु जीवन जीने का विज्ञान और व्यक्तीत्व निर्माण का विज्ञान स्वयं ईश्वर द्वारा दिया हुआ है । प्रथम दृष्टया हम देखते है तो यह भगवान श्री कृष्ण और अर्जुन का संवाद प्रतीत होती है । पर ध्यान से देखने पर और चिंतन करने पर हमारे ध्यान में आता है, कि इसमें मानव जीवन की सभी समस्याओं का निवारण और और अवसाद जिससे आजकल की युवा पीढ़ी सबसे ज्यादा ग्रसित है । उसका भी समाधान बताया है, इसमें में कोई भक्ति और धर्म की बात नही करुगा क्योकि ये दोनों विषय अंतर आत्मा के है, में सिर्फ उन श्लोकों की बात करूँगा जो आज के परिपेक्ष्य में युवाओ के लिए उपयोगी व मार्गदर्शक है । क्योकि योगेश्वर भगवान श्री कृष्ण ने इस विज्ञान को केवल अर्जुन या संजय को सुनाने के लिए तो कहा नही होगा उनका उद्देश्य तो सम्पूर्ण मानव जाति को ये विज्ञान प्रदान कर उसका कल्याण था । अर्जुन भी अवसाद (Depression) व कुंठा का शिकार हो गया था फिर भगवान ने उसे भी अवसाद से निकाला था कैसे यही भगवद गीता सुनाके क्योकि ये कोई साधारण वार्तालाप नही था ये स्वयं ईश्वर जीवन जीने का विज्ञान हम मानवो को दे रहे थे । इस विज्ञान से हम केवल कुंठा व अवसाद से ही नही निकल सकते अपितु अपने जीवन को इस मार्ग पर चलाकर सफल कर सकते है । विश्व के कई देशों के विश्वविद्यालयो व शोध संस्थानों में हमारे इसी वैज्ञानिक ग्रन्थ पर शोध चल रहा है । कई विद्वानों ने इसके ऊपर टिका या अपनी सरल भाषा में अनुवाद लिखे है । में भी प्रथम अध्याय से जो श्लोक युवापीढ़ी के लिए उपयोगी व मार्गदर्शक है । वो बताउगा इस विज्ञान में कुल 18 अध्याय में 700 श्लोक है,  हर अध्याय का अपना एक अलग नाम और शिक्षा है । जिसमे स्वयं ईश्वर हम मानवो को भक्तियोग, कर्मयोग, मुक्तिमार्ग, ध्यानयोग, व्यक्तीत्व निर्माण आदि अनन्त ज्ञान दे रहे है । वैसे तो इस विज्ञान के हर एक श्लोक पर एक पुस्तक लिखी जा सकती है और स्वयं शेष और महेश भी योगेश्वर के सम्पूर्ण ज्ञान और चरित्र का वर्णन करने में स्वयं को समर्थ नही पाते है । जैसा स्वयं भगवान शिव ने पद्मपुराण में स्पष्ट किया है । क्योकि विज्ञान में कई शाखाएं होती है आप सम्पूर्ण विज्ञान के ज्ञाता ना होकर किसी एक शाखा के ज्ञाता हो सकते है । या जो आपके लिए उपयोगी हो वही ग्रहण करके बाकी छोड़ देते है, मेने भी जो युवाओ के लिए उपयोगी व्यवहारिक ज्ञान विज्ञान के श्लोक है वही बताने का प्रयास किया है । तो प्रथम अध्याय से शुरू करते है ये विज्ञान : The Geeta Lesson 01

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  • अध्याय 1 : कुरुक्षेत्र का युद्ध स्थल में निरीक्षण का व्यवहारिक ज्ञान 

तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्‌ बन्धूनवस्थितान्‌॥

कृपया परयाविष्टो विषीदत्रिदमब्रवीत्‌।

उन उपस्थित सम्पूर्ण बंधुओं को देखकर वे कुंतीपुत्र अर्जुन अत्यन्त करुणा से युक्त होकर शोक करते हुए यह वचन बोले। श्लोक 27

व्यवहारिक अर्थ : श्लोक से स्पष्ठ है, अर्जुन वीर व ज्ञानी होते हुए मोह से ग्रसित हो जाते है, उन स्वजनों के लिए जो उन्हें नष्ट करने के लिए आये थे, हम भी अपने जीवन में कष्ट या दुःख अत्यधिक मोह के कारण पाते है आप स्वयं मनन कीजियेगा ।  

गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्वक्चैव परिदह्यते।

न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः॥ श्लोक 30

हाथ से गांडीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी बहुत जल रही है तथा मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है, इसलिए मैं खड़ा रहने को भी समर्थ नहीं हूँ ।

व्यवहारिक अर्थ : हमारे अधिकतर दुःखों के मूल या जड़ में ज्यादा मोह (लगाव) होता है । अर्जुन की स्थिति अत्यधिक मोह के कारण श्लोक से स्पष्ट है । 

निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव।

न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे॥ श्लोक 31

हे केशव! मैं लक्षणों को भी विपरीत ही देख रहा हूँ तथा युद्ध में स्वजन-समुदाय को मारकर कल्याण भी नहीं देखता ।

व्यवहारिक अर्थ : हमारे जीवन मे भी हम सत्य अत्यधिक मोह के कारण नही देख पाते और सफलता, कल्याण के लक्षण हमे विपरीत या उल्टे दिखते है । 

न काङ्‍क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च।

किं नो राज्येन गोविंद किं भोगैर्जीवितेन वा॥ श्लोक 32

हे कृष्ण! मैं न तो विजय चाहता हूँ और न राज्य तथा सुखों को ही। हे गोविंद! हमें ऐसे राज्य से क्या प्रयोजन है अथवा ऐसे भोगों से और जीवन से भी क्या लाभ है?

व्यवहारिक अर्थ : कई बार हमारा अज्ञान जनित मोह (लगाव) हमसे हमारी विजय, सफलता और सुख को हमसे दूर ले जाता है । श्लोक में अर्जुन स्वयं बता रहे है अतः हमें इससे बचना चाहिए 

एवमुक्त्वार्जुनः सङ्‍ख्ये रथोपस्थ उपाविशत्‌।

विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः॥ श्लोक 47

संजय बोले- रणभूमि में शोक से उद्विग्न मन वाले अर्जुन इस प्रकार कहकर, बाणसहित धनुष को त्यागकर रथ के पिछले भाग में बैठ गए ।

व्यवहारिक अर्थ : कई बार हमारा मोह (लगाव) इतना अधिक होता है कि रणभूमि या कर्म क्षेत्र से भी हमे दूर कर देता और हम अपने अस्त्र या अपने कर्मो का त्याग कर अपनी वर्तमान स्थिति को स्वीकार कर इसी तरह थककर, हारकर बैठ जाते है । 

The Geeta Lesson 01

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