अध्याय : 2 गीता का सार का व्यवहारिक ज्ञान The Geeta Lesson 02
श्रीभगवानुवाच
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन। श्लोक 2
श्रीभगवान बोले- हे अर्जुन! तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ? क्योंकि न तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है, न स्वर्ग को देने वाला है और न कीर्ति को करने वाला ही है ।
व्यवहारिक अर्थ : भगवान स्वयं कहते है, की असमय मोह (लगाव) श्रेष्ठ मनुष्य या बुद्दिमान मनुष्यो के लिए नही है, यह स्वर्ग या वर्तमान परिपेक्ष में सफलता ये भी आज के समय स्वर्ग है, स्वर्ग कोई जगह नही बल्कि मनोदशा है जहाँ आप आनन्दित हो और यह मोह कीर्ति (Fame) को नष्ट करता है ।
इसलिए हे अर्जुन! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती। हे परंतप! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिए खड़ा हो जा ।
व्यवहारिक अर्थ : श्लोक में भगवान अर्जुन या हम मानवो से कह रहे है नपुंसकता या कर्महीनता को प्राप्त मत हो और युद्ध के लिए या कर्म करने के लिए तैयार हो जा कई बार हम कर्म या प्रयत्न करना छोड़ देते है लक्ष्य के लिए जो उचित नही ।
श्री भगवानुवाच
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः॥ श्लोक 11
श्री भगवान बोले, हे अर्जुन! तू न शोक करने योग्य मनुष्यों के लिए शोक करता है और पण्डितों के से वचनों को कहता है, परन्तु जिनके प्राण चले गए हैं, उनके लिए और जिनके प्राण नहीं गए हैं उनके लिए भी पण्डितजन शोक नहीं करते ।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में भगवान अत्यंत व्यवहारिक बात कह रहे है, एक बात हम सभी जानते है जिसने जन्म लिया है । वो अपना जीवन जीके एक दिन इस दुनिया से जाएगा इससे कोई नही बच सकता पर हम कई बार सच को देखने की बजाय अत्यधिक दुःख और अवसाद में चले जाते है, जो पंडितजन या बुद्धिमानो के लिए भगवान ठीक नही बताते ।
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति॥ श्लोक 13
जैसे जीवात्मा की इस देह में बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है, उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में भी भगवान समझा रहे है हम सब के पास निश्चित समय बचपन, जवानी और वृद्धावस्था और अंत में संसार से जाना इसमें धीर बुद्दिमान लोग मोहित नही होते ।
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत॥ श्लोक 14
हे कुंतीपुत्र! सर्दी-गर्मी और सुख-दुःख को देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति-विनाशशील और अनित्य हैं, इसलिए हे भारत! उनको तू सहन कर ।
व्यवहारिक अर्थ : श्लोक में भगवान स्पष्ट बता रहे है सर्दी-गर्मी और सुख-दुःख इंद्रियों और विषयो यानी के संयोग या व्यवहारिक अर्थो में संसार और उससे होने वाली परेशानियां आएगी ही इसलिए इनको सहने वाले बनो श्लोक में महत्वपूर्ण बात अर्जुन को भगवान ने भारत कहा भारत कौन? भारत यानी हम सब ।
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते॥ श्लोक 15
The Geeta Lesson 02
क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ! दुःख-सुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को ये इन्द्रिय और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्ष के योग्य होता है ।
व्यवहारिक अर्थ : भगवान कह रहे है दुःख-सुख को समान समझने वाले क्योकि जीवन में ये दोनों आएंगे इंद्रियों और विषय संयोग ये भी होंगे पर जो इनमें व्याकुल या परेशान नही होगा, वह मोक्ष या सफलता मोक्ष भी मेरे अनुसार मन स्थिति है, जहाँ कोई कष्ट या संकल्प, विकल्पों का अभाव हो ।
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि॥ श्लोक 38
जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुख को समान समझकर, उसके बाद युद्ध के लिए तैयार हो जा, इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा ।
व्यवहारिक अर्थ : जय – पराजय, लाभ – हानि और सुख – दुःख ये सब तो जीवन के अभिन्न अंग है । अतः हमें इन्हें समान समझकर
हे अर्जुन! इस कर्मयोग में निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही होती है, किन्तु अस्थिर विचार वाले विवेकहीन सकाम मनुष्यों की बुद्धियाँ निश्चय ही बहुत भेदों वाली और अनन्त होती हैं ।
व्यवहारिक अर्थ : भगवान इस श्लोक में बता रहे है कर्म योग या जो आपका प्रोफेशन है, उसमे निश्चयात्मिका बुध्दि या किसी निश्चय पर पहुचने वाली बुध्दि एक ही होती है, किंतु अस्थिर विचार वाले विवेकहीन सकाम मनुष्यों की बुध्दि निश्चय ही बहुत भेदों वाली और अनन्त होती हैं ।
सब ओर से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त हो जाने पर छोटे जलाशय में मनुष्य का जितना प्रयोजन रहता है, ब्रह्म को तत्व से जानने वाले ब्राह्मण का समस्त वेदों में उतना ही प्रयोजन रह जाता है ।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक अनुसार योगेश्वर ये कह रहे है सब और से परिपूर्ण जलाशय अर्थात बड़े तालाब के प्राप्त होने पर मनुष्य का जितना प्रयोजन रहता है ब्रह्मा को तत्व से जानने वाले ब्राह्मण या ज्ञानी का समस्त वेदों या ज्ञान में उतना ही प्रयोजन रहता है इसमें भगवान गीता को अनन्त ज्ञान स्वयं कह रहे है ।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥ श्लोक 47
तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो ।
नोट : ये श्लोक तो अत्यंत प्रसिद्ध है सभी बचपन से सुन रहे है व इसका अर्थ भी जानते है ।
योगस्थः कुरु कर्माणि संग त्यक्त्वा धनंजय।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥
श्लोक 48
हे धनंजय! तू आसक्ति को त्यागकर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धिवाला होकर योग में स्थित हुआ कर्तव्य कर्मों को कर, समत्व ही योग कहलाता है ।
(जो कुछ भी कर्म किया जाए, उसके पूर्ण होने और न होने में तथा उसके फल में समभाव रहने का नाम ‘समत्व’ है।)
व्यवहारिक अर्थ : तू आसक्ति को त्याग कर सिद्धि (सफलता) और असिद्धि (असफलता) में समान बुद्धिवाला होकर योग या अपने काम मे स्थित हो मन लगा कर यहाँ भगवान स्पष्ट रूप से सफलता और असफलता में एक समान रहने का कह रहे है ।
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः॥ श्लोक 49
इस समत्वरूप बुद्धियोग से सकाम कर्म अत्यन्त ही निम्न श्रेणी का है। इसलिए हे धनंजय! तू समबुद्धि में ही रक्षा का उपाय ढूँढ अर्थात् बुद्धियोग का ही आश्रय ग्रहण कर क्योंकि फल के हेतु बनने वाले अत्यन्त दीन हैं ।
व्यवहारिक अर्थ : श्लोक में भगवान बुद्धियोग याने दिमाग के इस्तेमाल की बात कह रहे है, हमारे दैनिक जीवन मे भी हम बुद्धियोग के प्रयोग के स्थान पर कुंठा या अवसाद कर लेते है । जबकि भगवान ने बुद्धियोग से रक्षा का उपाय करने की बात कही है ।
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि॥ श्लोक 53
भाँति-भाँति के वचनों को सुनने से विचलित हुई तेरी बुद्धि जब परमात्मा में अचल और स्थिर ठहर जाएगी, तब तू योग को प्राप्त हो जाएगा अर्थात तेरा परमात्मा से नित्य संयोग हो जाएगा ।
व्यवहारिक अर्थ : भाँति-भाँति के वचनों को सुनकर अक्सर बुद्धि विचलित हो जाती है तब परमात्मा श्री कृष्ण कह रहे है कि योग या अपना काम करने के स्थिरबुद्धि अत्यंत आवश्यक है परमात्मा के साक्षात्कार और सफलता प्राप्ति के लिए स्थिर बुध्दि अत्यंत आवश्यक है ।
अर्जुन बोले- हे केशव! समाधि में स्थित परमात्मा को प्राप्त हुए स्थिरबुद्धि पुरुष का क्या लक्षण है? वह स्थिरबुद्धि पुरुष कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है?
व्यवहारिक अर्थ : श्लोक में अर्जुन भगवान से समाधि में स्थित परमात्मा को या सफलता को प्राप्त हुए स्थिरबुद्धि व्यक्ति के लक्षण वो कैसे बोलता है, कैसे बैठता है, कैसे चलता है आदि पूछ रहे है ।
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते॥ श्लोक 56
दुःखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता, सुखों की प्राप्ति में सर्वथा निःस्पृह है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गए हैं, ऐसा मुनि स्थिरबुद्धि कहा जाता है ।
व्यवहारिक अर्थ : श्लोक में भगवान स्थिर बुद्धि के लक्षण बता रहे है दुःखों की प्राप्ति पर जिसके मन मे उद्वेग या मन विचलित तथा सुख प्राप्ति में जिसका मन अनछुआ रहता है तथा जसको क्रोध (गुस्सा), राग या मोह और भय (डर ) जिसको प्रभावित नही करता वो स्थिरबुद्धि कहा जाता है ।
यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनंदति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥ श्लोक 57
जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ उस-उस शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि स्थिर है ।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में भगवान स्थिरबुद्धि मनुष्य के और भी लक्षण बता रहे है, जो स्नेहरहित हुआ व शुभ (अच्छा) प्राप्त होने पर ना जो खुश होता है व अशुभ (बुरा) प्राप्त न दुःख करता है, उसकी बुद्धि स्थिर है ।
और कछुवा सब ओर से अपने अंगों को जैसे समेट लेता है, वैसे ही जब यह पुरुष इन्द्रियों के विषयों से इन्द्रियों को सब प्रकार से हटा लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर है (ऐसा समझना चाहिए) ।
व्यवहारिक अर्थ : स्थिरबुध्दि कैसे करना है इसकी विधि बता रहे है, भगवान जैसे कछुआ अपने सभी अंग सब और से समेट लेता है, वैसे ही मनुष्य को भी चाहिए इंद्रियों और उनके विषय जैसे काम, क्रोध, मोह, लालच से हटा कर पहले अपना दिमाग स्थिर करे क्योकि सफलता के लिए स्थिर दिमाग आवश्यक है । The Geeta Lesson 02
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः॥ श्लोक 60
हे अर्जुन! आसक्ति का नाश न होने के कारण ये प्रमथन स्वभाव वाली इन्द्रियाँ यत्न करते हुए बुद्धिमान पुरुष के मन को भी बलात् हर लेती हैं ।
व्यवहारिक अर्थ : आसक्ति (लगाव) कानाश ना होने से ये हमारी प्रमथन स्वभाव या चंचल स्वभाव वाली इंद्रियों को जो व्यक्ति अपने लक्ष्य की प्राप्ति में लगा हो उसके मन को भी बलात हर लेती हैं ।
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥ श्लोक 61
इसलिए साधक को चाहिए कि वह उन सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके समाहित चित्त हुआ मेरे परायण होकर ध्यान में बैठे क्योंकि जिस पुरुष की इन्द्रियाँ वश में होती हैं, उसी की बुद्धि स्थिर हो जाती है ।
व्यवहारिक अर्थ : इंद्रियों को वश में करने के लिए प्रभु बता रहे है जो मेरे चित्त हुआ मेरे परायण होकर ध्यान या (Meditation) में बैठे क्योकि जिसकी इंद्रियां उसके वश में होती है, उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है । यहाँ प्रभु बता रहे है स्थिर बुद्धि का महत्त्व हम सभी जानते भी है । The Geeta Lesson 02
ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥श्लोक 62
विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है ।
व्यवहारिक अर्थ : विषयो का चिंतन अर्थात जो सांसारिक विषय या अन्य निजी विषय होते है । उनके बारे में सोचने से उनमे आसत्ति या लगाव हो जाता है, और उन विषयो को प्राप्त करने की इक्छा उत्पन्न होती है और जब उनमे कोई विघ्न या बाधा आती है तो क्रोध या गुस्सा आता है ।
क्रोध से अत्यन्त मूढ़ भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़ भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है ।
व्यवहारिक अर्थ : यहाँ भगवान क्रोध और उससे होने वाले नुकसान के विषय मे बता रहे है, क्रोध आने पर मूढ़ भाव या मूर्खता का भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़ भाव से स्मृति या हमारी चेतना में भृम हो जाता है, व बुद्धि का नाश हो जाता है और बुद्धि अर्थात अगर दिमाग कानाश होने पर जीव अपनी वर्तमान स्थिति से गिर जाता है ।
रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति॥ श्लोक 64
परंन्तु अपने अधीन किए हुए अन्तःकरण वाला साधक अपने वश में की हुई, राग-द्वेष रहित इन्द्रियों द्वारा विषयों में विचरण करता हुआ अन्तःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है ।
व्यवहारिक अर्थ : यहां भगवान प्रसन्न या खुश रहने का तरीका बता रहे है,जिसका मन और राग-द्वेष रहित इंद्रियों द्वारा विषयों में विचरण करना अपने अधीन कर लेता है या अपने मन और इंद्रियों पर नियंत्रण पा लेता है, वो प्रसन्न रहता है
अन्तःकरण की प्रसन्नता होने पर इसके सम्पूर्ण दुःखों का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्नचित्त वाले कर्मयोगी की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर एक परमात्मा में ही भलीभाँति स्थिर हो जाती है ।
व्यवहारिक अर्थ : भगवान ने बताया है इस श्लोक में की जिसका अन्तः करण या मन प्रसन्न होता है उसे सम्पूर्ण दुःखों का अभाव होता है और उस प्रसन्न चित वाले कर्मयोगी की बुद्धि सब तरफ से हटकर एक परमात्मा या जो सफलता चाहता है उनके लिए उनके लक्ष्य में लग जाती है । The Geeta Lesson 02
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्॥ श्लोक 66
न जीते हुए मन और इन्द्रियों वाले पुरुष में निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती और उस अयुक्त मनुष्य के अन्तःकरण में भावना भी नहीं होती तथा भावनाहीन मनुष्य को शान्ति नहीं मिलती और शान्तिरहित मनुष्य को सुख कैसे मिल सकता है?
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में भगवान स्पष्ट कह रहे है अगर हमारा मन और इंद्रियां स्वयं के द्वारा जीती ना गई हो तो फिर उस ना जीते हुए मन मे भावना नही होती और भावनाहीन मनुष्य को शान्ति नहीं मिलती शान्ति रहित या अशान्त मनुष्य को सुख कैसे मिल सकता है ।
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि॥ श्लोक 67
क्योंकि जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता है, वह एक ही इन्द्रिय इस अयुक्त पुरुष की बुद्धि को हर लेती है ।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में भगवान सावधान कर रहे है जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु अपने साथ बहाकर ले जाती है वैसे ही हमारा मन जिस इंद्री के साथ सबसे अधिक होता है वही हमारी बुद्धि या दिमाग हर या खराब करने के लिए पर्याप्त होगी ।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी॥ श्लोक 70
जैसे नाना नदियों के जल सब ओर से परिपूर्ण, अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में उसको विचलित न करते हुए ही समा जाते हैं, वैसे ही सब भोग जिस स्थितप्रज्ञ पुरुष में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किए बिना ही समा जाते हैं, वही पुरुष परम शान्ति को प्राप्त होता है, भोगों को चाहने वाला नहीं । The Geeta Lesson 02
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में भगवान सागर या समुद्र का उदाहरण देकर समझा रहे है कि सारी नदियों का जल जैसे समुद्र को बिना विचलित किए हुए समा जाता है वैसे ही सब भोग स्थितप्रज्ञ पुरुष या स्थिर दिमाग जीव में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किये बिना समा जाते है, वही परम् शांति या सफलता को प्राप्त होता है भोगों को चाहने वाला नही
इस अध्याय में भगवान ने स्थिर बुद्धि या स्थिर दिमाग के महत्व को बताया है, जिसका महत्व सफलता के लिए हम सभी जानते है। The Geeta Lesson 02
The Geeta Lesson 02
अध्याय : 2 गीता का सार का व्यवहारिक ज्ञान The Geeta Lesson 02
श्रीभगवानुवाच
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन। श्लोक 2
श्रीभगवान बोले- हे अर्जुन! तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ? क्योंकि न तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है, न स्वर्ग को देने वाला है और न कीर्ति को करने वाला ही है ।
व्यवहारिक अर्थ : भगवान स्वयं कहते है, की असमय मोह (लगाव) श्रेष्ठ मनुष्य या बुद्दिमान मनुष्यो के लिए नही है, यह स्वर्ग या वर्तमान परिपेक्ष में सफलता ये भी आज के समय स्वर्ग है, स्वर्ग कोई जगह नही बल्कि मनोदशा है जहाँ आप आनन्दित हो और यह मोह कीर्ति (Fame) को नष्ट करता है ।
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप॥ श्लोक 3
इसलिए हे अर्जुन! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती। हे परंतप! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिए खड़ा हो जा ।
व्यवहारिक अर्थ : श्लोक में भगवान अर्जुन या हम मानवो से कह रहे है नपुंसकता या कर्महीनता को प्राप्त मत हो और युद्ध के लिए या कर्म करने के लिए तैयार हो जा कई बार हम कर्म या प्रयत्न करना छोड़ देते है लक्ष्य के लिए जो उचित नही ।
श्री भगवानुवाच
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः॥ श्लोक 11
श्री भगवान बोले, हे अर्जुन! तू न शोक करने योग्य मनुष्यों के लिए शोक करता है और पण्डितों के से वचनों को कहता है, परन्तु जिनके प्राण चले गए हैं, उनके लिए और जिनके प्राण नहीं गए हैं उनके लिए भी पण्डितजन शोक नहीं करते ।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में भगवान अत्यंत व्यवहारिक बात कह रहे है, एक बात हम सभी जानते है जिसने जन्म लिया है । वो अपना जीवन जीके एक दिन इस दुनिया से जाएगा इससे कोई नही बच सकता पर हम कई बार सच को देखने की बजाय अत्यधिक दुःख और अवसाद में चले जाते है, जो पंडितजन या बुद्धिमानो के लिए भगवान ठीक नही बताते ।
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति॥ श्लोक 13
जैसे जीवात्मा की इस देह में बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है, उस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होता।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में भी भगवान समझा रहे है हम सब के पास निश्चित समय बचपन, जवानी और वृद्धावस्था और अंत में संसार से जाना इसमें धीर बुद्दिमान लोग मोहित नही होते ।
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत॥ श्लोक 14
हे कुंतीपुत्र! सर्दी-गर्मी और सुख-दुःख को देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति-विनाशशील और अनित्य हैं, इसलिए हे भारत! उनको तू सहन कर ।
व्यवहारिक अर्थ : श्लोक में भगवान स्पष्ट बता रहे है सर्दी-गर्मी और सुख-दुःख इंद्रियों और विषयो यानी के संयोग या व्यवहारिक अर्थो में संसार और उससे होने वाली परेशानियां आएगी ही इसलिए इनको सहने वाले बनो श्लोक में महत्वपूर्ण बात अर्जुन को भगवान ने भारत कहा भारत कौन? भारत यानी हम सब ।
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते॥ श्लोक 15
The Geeta Lesson 02
क्योंकि हे पुरुषश्रेष्ठ! दुःख-सुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को ये इन्द्रिय और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते, वह मोक्ष के योग्य होता है ।
व्यवहारिक अर्थ : भगवान कह रहे है दुःख-सुख को समान समझने वाले क्योकि जीवन में ये दोनों आएंगे इंद्रियों और विषय संयोग ये भी होंगे पर जो इनमें व्याकुल या परेशान नही होगा, वह मोक्ष या सफलता मोक्ष भी मेरे अनुसार मन स्थिति है, जहाँ कोई कष्ट या संकल्प, विकल्पों का अभाव हो ।
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि॥ श्लोक 38
जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुख को समान समझकर, उसके बाद युद्ध के लिए तैयार हो जा, इस प्रकार युद्ध करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा ।
व्यवहारिक अर्थ : जय – पराजय, लाभ – हानि और सुख – दुःख ये सब तो जीवन के अभिन्न अंग है । अतः हमें इन्हें समान समझकर
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन ।
बहुशाका ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्॥ श्लोक 41
हे अर्जुन! इस कर्मयोग में निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही होती है, किन्तु अस्थिर विचार वाले विवेकहीन सकाम मनुष्यों की बुद्धियाँ निश्चय ही बहुत भेदों वाली और अनन्त होती हैं ।
व्यवहारिक अर्थ : भगवान इस श्लोक में बता रहे है कर्म योग या जो आपका प्रोफेशन है, उसमे निश्चयात्मिका बुध्दि या किसी निश्चय पर पहुचने वाली बुध्दि एक ही होती है, किंतु अस्थिर विचार वाले विवेकहीन सकाम मनुष्यों की बुध्दि निश्चय ही बहुत भेदों वाली और अनन्त होती हैं ।
यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः॥ श्लोक 46
सब ओर से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त हो जाने पर छोटे जलाशय में मनुष्य का जितना प्रयोजन रहता है, ब्रह्म को तत्व से जानने वाले ब्राह्मण का समस्त वेदों में उतना ही प्रयोजन रह जाता है ।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक अनुसार योगेश्वर ये कह रहे है सब और से परिपूर्ण जलाशय अर्थात बड़े तालाब के प्राप्त होने पर मनुष्य का जितना प्रयोजन रहता है ब्रह्मा को तत्व से जानने वाले ब्राह्मण या ज्ञानी का समस्त वेदों या ज्ञान में उतना ही प्रयोजन रहता है इसमें भगवान गीता को अनन्त ज्ञान स्वयं कह रहे है ।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥ श्लोक 47
तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो ।
नोट : ये श्लोक तो अत्यंत प्रसिद्ध है सभी बचपन से सुन रहे है व इसका अर्थ भी जानते है ।
योगस्थः कुरु कर्माणि संग त्यक्त्वा धनंजय।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥
श्लोक 48
हे धनंजय! तू आसक्ति को त्यागकर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धिवाला होकर योग में स्थित हुआ कर्तव्य कर्मों को कर, समत्व ही योग कहलाता है ।
(जो कुछ भी कर्म किया जाए, उसके पूर्ण होने और न होने में तथा उसके फल में समभाव रहने का नाम ‘समत्व’ है।)
व्यवहारिक अर्थ : तू आसक्ति को त्याग कर सिद्धि (सफलता) और असिद्धि (असफलता) में समान बुद्धिवाला होकर योग या अपने काम मे स्थित हो मन लगा कर यहाँ भगवान स्पष्ट रूप से सफलता और असफलता में एक समान रहने का कह रहे है ।
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः॥ श्लोक 49
इस समत्वरूप बुद्धियोग से सकाम कर्म अत्यन्त ही निम्न श्रेणी का है। इसलिए हे धनंजय! तू समबुद्धि में ही रक्षा का उपाय ढूँढ अर्थात् बुद्धियोग का ही आश्रय ग्रहण कर क्योंकि फल के हेतु बनने वाले अत्यन्त दीन हैं ।
व्यवहारिक अर्थ : श्लोक में भगवान बुद्धियोग याने दिमाग के इस्तेमाल की बात कह रहे है, हमारे दैनिक जीवन मे भी हम बुद्धियोग के प्रयोग के स्थान पर कुंठा या अवसाद कर लेते है । जबकि भगवान ने बुद्धियोग से रक्षा का उपाय करने की बात कही है ।
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि॥ श्लोक 53
भाँति-भाँति के वचनों को सुनने से विचलित हुई तेरी बुद्धि जब परमात्मा में अचल और स्थिर ठहर जाएगी, तब तू योग को प्राप्त हो जाएगा अर्थात तेरा परमात्मा से नित्य संयोग हो जाएगा ।
व्यवहारिक अर्थ : भाँति-भाँति के वचनों को सुनकर अक्सर बुद्धि विचलित हो जाती है तब परमात्मा श्री कृष्ण कह रहे है कि योग या अपना काम करने के स्थिरबुद्धि अत्यंत आवश्यक है परमात्मा के साक्षात्कार और सफलता प्राप्ति के लिए स्थिर बुध्दि अत्यंत आवश्यक है ।
अर्जुन उवाच
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्॥ श्लोक 54
अर्जुन बोले- हे केशव! समाधि में स्थित परमात्मा को प्राप्त हुए स्थिरबुद्धि पुरुष का क्या लक्षण है? वह स्थिरबुद्धि पुरुष कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है?
व्यवहारिक अर्थ : श्लोक में अर्जुन भगवान से समाधि में स्थित परमात्मा को या सफलता को प्राप्त हुए स्थिरबुद्धि व्यक्ति के लक्षण वो कैसे बोलता है, कैसे बैठता है, कैसे चलता है आदि पूछ रहे है ।
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते॥ श्लोक 56
दुःखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता, सुखों की प्राप्ति में सर्वथा निःस्पृह है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गए हैं, ऐसा मुनि स्थिरबुद्धि कहा जाता है ।
व्यवहारिक अर्थ : श्लोक में भगवान स्थिर बुद्धि के लक्षण बता रहे है दुःखों की प्राप्ति पर जिसके मन मे उद्वेग या मन विचलित तथा सुख प्राप्ति में जिसका मन अनछुआ रहता है तथा जसको क्रोध (गुस्सा), राग या मोह और भय (डर ) जिसको प्रभावित नही करता वो स्थिरबुद्धि कहा जाता है ।
यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनंदति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥ श्लोक 57
जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ उस-उस शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि स्थिर है ।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में भगवान स्थिरबुद्धि मनुष्य के और भी लक्षण बता रहे है, जो स्नेहरहित हुआ व शुभ (अच्छा) प्राप्त होने पर ना जो खुश होता है व अशुभ (बुरा) प्राप्त न दुःख करता है, उसकी बुद्धि स्थिर है ।
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गनीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥ श्लोक 58
और कछुवा सब ओर से अपने अंगों को जैसे समेट लेता है, वैसे ही जब यह पुरुष इन्द्रियों के विषयों से इन्द्रियों को सब प्रकार से हटा लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर है (ऐसा समझना चाहिए) ।
व्यवहारिक अर्थ : स्थिरबुध्दि कैसे करना है इसकी विधि बता रहे है, भगवान जैसे कछुआ अपने सभी अंग सब और से समेट लेता है, वैसे ही मनुष्य को भी चाहिए इंद्रियों और उनके विषय जैसे काम, क्रोध, मोह, लालच से हटा कर पहले अपना दिमाग स्थिर करे क्योकि सफलता के लिए स्थिर दिमाग आवश्यक है । The Geeta Lesson 02
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः॥ श्लोक 60
हे अर्जुन! आसक्ति का नाश न होने के कारण ये प्रमथन स्वभाव वाली इन्द्रियाँ यत्न करते हुए बुद्धिमान पुरुष के मन को भी बलात् हर लेती हैं ।
व्यवहारिक अर्थ : आसक्ति (लगाव) का नाश ना होने से ये हमारी प्रमथन स्वभाव या चंचल स्वभाव वाली इंद्रियों को जो व्यक्ति अपने लक्ष्य की प्राप्ति में लगा हो उसके मन को भी बलात हर लेती हैं ।
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥ श्लोक 61
इसलिए साधक को चाहिए कि वह उन सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके समाहित चित्त हुआ मेरे परायण होकर ध्यान में बैठे क्योंकि जिस पुरुष की इन्द्रियाँ वश में होती हैं, उसी की बुद्धि स्थिर हो जाती है ।
व्यवहारिक अर्थ : इंद्रियों को वश में करने के लिए प्रभु बता रहे है जो मेरे चित्त हुआ मेरे परायण होकर ध्यान या (Meditation) में बैठे क्योकि जिसकी इंद्रियां उसके वश में होती है, उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है । यहाँ प्रभु बता रहे है स्थिर बुद्धि का महत्त्व हम सभी जानते भी है । The Geeta Lesson 02
ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥श्लोक 62
विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है ।
व्यवहारिक अर्थ : विषयो का चिंतन अर्थात जो सांसारिक विषय या अन्य निजी विषय होते है । उनके बारे में सोचने से उनमे आसत्ति या लगाव हो जाता है, और उन विषयो को प्राप्त करने की इक्छा उत्पन्न होती है और जब उनमे कोई विघ्न या बाधा आती है तो क्रोध या गुस्सा आता है ।
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥ श्लोक 63
क्रोध से अत्यन्त मूढ़ भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़ भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है ।
व्यवहारिक अर्थ : यहाँ भगवान क्रोध और उससे होने वाले नुकसान के विषय मे बता रहे है, क्रोध आने पर मूढ़ भाव या मूर्खता का भाव उत्पन्न हो जाता है, मूढ़ भाव से स्मृति या हमारी चेतना में भृम हो जाता है, व बुद्धि का नाश हो जाता है और बुद्धि अर्थात अगर दिमाग का नाश होने पर जीव अपनी वर्तमान स्थिति से गिर जाता है ।
रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति॥ श्लोक 64
परंन्तु अपने अधीन किए हुए अन्तःकरण वाला साधक अपने वश में की हुई, राग-द्वेष रहित इन्द्रियों द्वारा विषयों में विचरण करता हुआ अन्तःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है ।
व्यवहारिक अर्थ : यहां भगवान प्रसन्न या खुश रहने का तरीका बता रहे है,जिसका मन और राग-द्वेष रहित इंद्रियों द्वारा विषयों में विचरण करना अपने अधीन कर लेता है या अपने मन और इंद्रियों पर नियंत्रण पा लेता है, वो प्रसन्न रहता है
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते॥ श्लोक 65
अन्तःकरण की प्रसन्नता होने पर इसके सम्पूर्ण दुःखों का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्नचित्त वाले कर्मयोगी की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर एक परमात्मा में ही भलीभाँति स्थिर हो जाती है ।
व्यवहारिक अर्थ : भगवान ने बताया है इस श्लोक में की जिसका अन्तः करण या मन प्रसन्न होता है उसे सम्पूर्ण दुःखों का अभाव होता है और उस प्रसन्न चित वाले कर्मयोगी की बुद्धि सब तरफ से हटकर एक परमात्मा या जो सफलता चाहता है उनके लिए उनके लक्ष्य में लग जाती है । The Geeta Lesson 02
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्॥ श्लोक 66
न जीते हुए मन और इन्द्रियों वाले पुरुष में निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती और उस अयुक्त मनुष्य के अन्तःकरण में भावना भी नहीं होती तथा भावनाहीन मनुष्य को शान्ति नहीं मिलती और शान्तिरहित मनुष्य को सुख कैसे मिल सकता है?
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में भगवान स्पष्ट कह रहे है अगर हमारा मन और इंद्रियां स्वयं के द्वारा जीती ना गई हो तो फिर उस ना जीते हुए मन मे भावना नही होती और भावनाहीन मनुष्य को शान्ति नहीं मिलती शान्ति रहित या अशान्त मनुष्य को सुख कैसे मिल सकता है ।
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि॥ श्लोक 67
क्योंकि जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु हर लेती है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता है, वह एक ही इन्द्रिय इस अयुक्त पुरुष की बुद्धि को हर लेती है ।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में भगवान सावधान कर रहे है जैसे जल में चलने वाली नाव को वायु अपने साथ बहाकर ले जाती है वैसे ही हमारा मन जिस इंद्री के साथ सबसे अधिक होता है वही हमारी बुद्धि या दिमाग हर या खराब करने के लिए पर्याप्त होगी ।
तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥ श्लोक 68
इसलिए हे महाबाहो! जिस पुरुष की इन्द्रियाँ इन्द्रियों के विषयों में सब प्रकार निग्रह की हुई हैं, उसी की बुद्धि स्थिर है ।
व्यवहारिक अर्थ : भगवान अर्जुन से कह रहे है महाबाहो जिस पुरुष की इंद्रियां सब प्रकार निग्रह या वश में है, उसी का दिमाग स्थिर है
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं- समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी॥ श्लोक 70
जैसे नाना नदियों के जल सब ओर से परिपूर्ण, अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में उसको विचलित न करते हुए ही समा जाते हैं, वैसे ही सब भोग जिस स्थितप्रज्ञ पुरुष में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किए बिना ही समा जाते हैं, वही पुरुष परम शान्ति को प्राप्त होता है, भोगों को चाहने वाला नहीं । The Geeta Lesson 02
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में भगवान सागर या समुद्र का उदाहरण देकर समझा रहे है कि सारी नदियों का जल जैसे समुद्र को बिना विचलित किए हुए समा जाता है वैसे ही सब भोग स्थितप्रज्ञ पुरुष या स्थिर दिमाग जीव में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किये बिना समा जाते है, वही परम् शांति या सफलता को प्राप्त होता है भोगों को चाहने वाला नही
इस अध्याय में भगवान ने स्थिर बुद्धि या स्थिर दिमाग के महत्व को बताया है, जिसका महत्व सफलता के लिए हम सभी जानते है। The Geeta Lesson 02
The Geeta Lesson 02
Bhawani Singh
Young-Energetic Person, Animation Creator, Owner Of माँ शक्ति Creation-Graphics/3D/Web Design Services