The Geeta Lesson 03

  • अध्याय 3 : कर्म योग का व्यवहारिक ज्ञान (The Geeta Lesson 03)

न कर्मणामनारंभान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।

न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति॥ श्लोक 4

मनुष्य न तो कर्मों का आरंभ किए बिना निष्कर्मता को यानी योगनिष्ठा को प्राप्त होता है और न कर्मों के केवल त्यागमात्र से सिद्धि यानी सांख्यनिष्ठा को ही प्राप्त होता है । (जिस अवस्था को प्राप्त हुए पुरुष के कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात फल उत्पन्न नहीं कर सकते, उस अवस्था का नाम ‘निष्कर्मता’ है।) 

व्यवहारिक अर्थ : श्लोक से भगवान स्पष्ट कर रहे है, की कर्मो को आरम्भ किये बिना और कर्मों को त्याग या छोड़ देने से योगनिष्ठा या अपने काम के प्रति निष्ठा नही होती ।

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न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्‌।

कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः॥ श्लोक 5

निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रहता क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है ।

व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में भगवान का स्पष्ट सन्देश है कि मनुष्य किसी भी काल मे 1 सेकेंड के लिए भी कर्म किये बिना नही रह सकता क्योंकि जितने भी मानव है वो मा प्रकृति के गुणों से मजबूर है वह या शारीरिक कर्म करेगा या मानसिक कर्म करेगा । The Geeta Lesson 03

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्‌।

इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते॥ श्लोक 6

जो मूढ़ बुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात दम्भी कहा जाता है ।

व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में भगवान ने पाखण्ड और आडम्बर पर प्रहार करते हुए स्पष्ट किया है कि जो मूढ़ बुद्धि या मूर्ख मनुष्य हठपूर्वक या जिद करके ऊपर से रोककर मन ही मन इंडियो के विषय काम, लोभ, मोह, आदि का चिंतन करता है वो मिथ्याचारी या ड्रामेबाज कहा जाता है हमारे आसपास ऐसे कई उदाहरण हमको मिल जायेंगे ।

यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।

कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते॥ श्लोक 7

किन्तु हे अर्जुन! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है ।

व्यवहारिक अर्थ : इसमें भगवान बता रहे है मनुष्यो में कौन श्रेष्ठ या बड़ा है जो मन से इंद्रियों को वश करके अनासक्त हुआ या अलग होकर समस्त इंद्रियों से कर्मयोग का आचरण या पूरे मन से अपने काम को करना आदि करता है वही श्रेष्ठ है ।

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।

शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः॥ श्लोक 8

तू शास्त्रविहित कर्तव्यकर्म कर क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर-निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा ।

व्यवहारिक अर्थ : श्लोक अत्यंत व्यवहारिक है तू शास्त्रविहित या जो सिस्टम बना है उसके अनुसार कर्म या काम कर क्योकि कुछ ना करने से कुछ करना अति श्रेष्ठ है क्योकि कुछ ना करने से तेरा शरीर निर्वाह भी नही होगा सीधे शब्दों में कहे तो अगर तू कुछ कमाएगा नही तो खायेगा क्या ।

तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।

असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पुरुषः॥ श्लोक 19

इसलिए तू निरन्तर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्तव्यकर्म को भलीभाँति करता रह क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है ।

व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में भगवान निरन्तर कर्म करने की शिक्षा आसत्ति से या लगाव से रहित होकर करने की दे रहे है क्योंकि आसत्ति से रहित मनुष्य कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को चाहने वाला परमात्मा को और सफलता चाहने वाला सफलता को प्राप्त होगा ये भी अत्यंत व्यवहारिक बात है । The Geeta Lesson 03

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।

स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥ श्लोक 21

श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्य-समुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है (यहाँ क्रिया में एकवचन है, परन्तु ‘लोक’ शब्द समुदायवाचक होने से भाषा में बहुवचन की क्रिया लिखी ।

व्यवहारिक अर्थ : आज के परिपेक्ष्य में महत्वपूर्ण श्लोक श्रेष्ठ मनुष्य या आदरणीय, पूजनीय उनके द्वारा जैसा आचरण या व्यवहार किया जाएगा अन्य लोग भी उनसे प्रेरणा पाकर वैसा ही व्यवहार करेगे ये श्लोक माता- पिता, गुरुजन और सभी पूजनीयों के लिए महत्वपूर्ण है।

ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः।

श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽति कर्मभिः॥ श्लोक 31

जो कोई मनुष्य दोषदृष्टि से रहित और श्रद्धायुक्त होकर मेरे इस मत का सदा अनुसरण करते हैं, वे भी सम्पूर्ण कर्मों से छूट जाते हैं । 

व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में भगवान कह रहे है जो मनुष्य दोषदृष्टि से रहित या भगवान में विश्वाश करके उनके इस मत या व्यवहारिक विज्ञान का अनुसरण करते है वो समस्त बन्धनों से छूट जाते है अब बंधन सांसारिक भी तो होते है ।

ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्‌।

सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः॥ श्लोक 32

परन्तु जो मनुष्य मुझमें दोषारोपण करते हुए मेरे इस मत के अनुसार नहीं चलते हैं, उन मूर्खों को तू सम्पूर्ण ज्ञानों में मोहित और नष्ट हुए ही समझ ।

व्यवहारिक अर्थ : ये श्लोक में चेतावनी है समस्त मानवो के लिए जो मनुष्य मुझमे दोषारोपण करते हुए मेरे इस मत या मेरे द्वारा दिये हुए विज्ञान के अनुसार नही चलते है, तो उन मूर्खों को तू सम्पूर्ण ज्ञानों में मोहित और नष्ट हुए ही समझ ।

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।

तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ॥ श्लोक 34

इन्द्रिय-इन्द्रिय के अर्थ में अर्थात प्रत्येक इन्द्रिय के विषय में राग और द्वेष छिपे हुए स्थित हैं। मनुष्य को उन दोनों के वश में नहीं होना चाहिए क्योंकि वे दोनों ही इसके कल्याण मार्ग में विघ्न करने वाले महान्‌ शत्रु हैं ।

व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में भगवान कह रहे है हमारी हर इंद्री में राग और द्वेष छिपे हुए स्थित हैं । मनुष्य को उन दोनों के वश में नही होना चाहिए क्योंकि वे दोनों ही इसके कल्याण या सफलता मार्ग में विघ्न या बाधा करने वाले महान शत्रु हैं । 

धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।

यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्‌॥ श्लोक 38

जिस प्रकार धुएँ से अग्नि और मैल से दर्पण ढँका जाता है तथा जिस प्रकार जेर से गर्भ ढँका रहता है, वैसे ही उस काम द्वारा यह ज्ञान ढँका रहता है ।

व्यवहारिक अर्थ : श्लोक में योगेश्वर कह रहे है जैसे धुंए से अग्नि और मैल से दर्पण ढँका रहता है, जेर से गर्भ वैसे ही उस काम या भौतिक इक्छाओ द्वारा ये यह ज्ञान ढँका रहता है । ये अग्नि, दर्पण, गर्भ उदाहरण देकर भगवान समझा रहे है कि किस प्रकार सांसारिक आकांक्षाओ द्वारा मनुष्य का ज्ञान ढँका रहता है । The Geeta Lesson 03

आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।

कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च॥ श्लोक 39

और हे अर्जुन! इस अग्नि के समान कभी न पूर्ण होने वाले काम रूप ज्ञानियों के नित्य वैरी द्वारा मनुष्य का ज्ञान ढँका हुआ है ।

व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में काम या भौतिक इक्छाओ को योगेश्वर ने अग्नि के समान कभी न पूर्ण या तृप्त होने वाला बताया व इसे ज्ञानियों का नित्य वैरी बताया है इसी से ज्ञान ढँका हुआ है ।

इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते।

एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्‌॥ श्लोक 40

इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि- ये सब इसके वासस्थान कहे जाते हैं। यह काम इन मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा ही ज्ञान को आच्छादित करके जीवात्मा को मोहित करता है। 

व्यवहारिक अर्थ : काम या भौतिक इक्छाओ के निवास किसे कहा है योगेश्वर ने तो मन, इंद्रियों, बुद्धि ये सब इसके वास् स्थान है यह काम इन मन, बुद्धि और इंद्रियों द्वारा ही ज्ञान को आच्छादित करके जीवात्मा को मोहित करता है । मनोविज्ञान की दृष्टि से अत्यंत महत्पूर्ण श्लोक 

तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।

पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्‌॥ श्लोक 41

इसलिए हे अर्जुन! तू पहले इन्द्रियों को वश में करके इस ज्ञान और विज्ञान का नाश करने वाले महान पापी काम को अवश्य ही बलपूर्वक मार डाल ।

व्यवहारिक अर्थ :श्लोक में भगवान अर्जुन से कह रहे है तू पहले इंद्रियों वश में करके इस ज्ञान और विज्ञान का नाश करने वाले महान पापी काम को अवश्य ही बलपूर्वक मार डाल । इस श्लोक में प्रभु ने स्वयं इस गीता ज्ञान को विज्ञान कहा है 

इस ध्याय भगवान ने इंद्रियों और बुद्धि, मन को नियंत्रण की महत्वता बताई है जिसका महत्व हम सभी जानते है।

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