श्री भगवान बोले- हे अर्जुन! यह शरीर ‘क्षेत्र’ (जैसे खेत में बोए हुए बीजों का उनके अनुरूप फल समय पर प्रकट होता है, वैसे ही इसमें बोए हुए कर्मों के संस्कार रूप बीजों का फल समय पर प्रकट होता है, इसलिए इसका नाम ‘क्षेत्र’ ऐसा कहा है) इस नाम से कहा जाता है और इसको जो जानता है, उसको ‘क्षेत्रज्ञ’ इस नाम से उनके तत्व को जानने वाले ज्ञानीजन कहते हैं ।
व्यवहारिक अर्थ : यह शरीर क्षेत्र जैसे खेत में बोए हुए बीजों का उनके अनुरूप फल समय पर इसलिए इसका नाम क्षेत्र ऐसा कहा है उसको क्षेत्रज्ञ इस नाम से उनके तत्व को जानने वाले ज्ञानीजन कहते है ।
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अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम्।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः॥ श्लोक 7
श्रेष्ठता के अभिमान का अभाव, दम्भाचरण का अभाव, किसी भी प्राणी को किसी प्रकार भी न सताना, क्षमाभाव, मन-वाणी आदि की सरलता, श्रद्धा-भक्ति सहित गुरु की सेवा, बाहर-भीतर की शुद्धि अन्तःकरण की स्थिरता और मन-इन्द्रियों सहित शरीर का निग्रह ।
(सत्यतापूर्वक शुद्ध व्यवहार से द्रव्य की और उसके अन्न से आहार की तथा यथायोग्य बर्ताव से आचरणों की और जल-मृत्तिकादि से शरीर की शुद्धि को बाहर की शुद्धि कहते हैं तथा राग, द्वेष और कपट आदि विकारों का नाश होकर अन्तःकरण का स्वच्छ हो जाना भीतर की शुद्धि कही जाती है।)
व्यवहारिक अर्थ : श्रेष्टता के अभिमान का अभाव, दम्भचारन का अभाव, किसी भी प्राणी को किसी तरह से न सताना, माफ करना, मन वाणी आदि की सरलता, श्रद्धा भक्ति के साथ अपने गुरु की सेवा, बाहर भीतर की शुद्धि अन्तः करन की स्थिरता और मन इंद्रियों सहित शरीर का निग्रह ।
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् ।।श्लोक 8
इस लोक और परलोक के सम्पूर्ण भोगों में आसक्ति का अभाव और अहंकार का भी अभाव, जन्म, मृत्यु, जरा और रोग आदि में दुःख और दोषों का बार-बार विचार करना ।
व्यवहारिक अर्थ : इस लोक और परलोक के सम्पूर्ण भोग या सुख सुविधाओं के प्रति असत्ति या लगाव का अभाव और अहंकार का अभाव, जन्म, मृत्यु, जरा और रोग आदि में दुःख और दोषों का बार बार विचार करना।
असक्तिरनभिष्वङ्ग: पुत्रदारगृहादिषु।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु॥ श्लोक 9
पुत्र, स्त्री, घर और धन आदि में आसक्ति का अभाव, ममता का न होना तथा प्रिय और अप्रिय की प्राप्ति में सदा ही चित्त का सम रहना ।
व्यवहारिक अर्थ : पुत्र, स्त्री, घर और धन आदि में असत्ति का अभाव, ममता का न होना तथा प्रिय और अप्रिय जो भी मिले उसमे चित्त समान या एक जैसा रहे
श्री भगवान बोले- ज्ञानों में भी अतिउत्तम उस परम ज्ञान को मैं फिर कहूँगा, जिसको जानकर सब मुनिजन इस संसार से मुक्त होकर परम सिद्धि को प्राप्त हो गए हैं ।
व्यवहारिक अर्थ : श्री भगवान ने पुनः इस गीता ज्ञान को ज्ञानों में अतिउत्तम उस परम ज्ञान कहा है, जिसको जानकर सब मुनिजन या ज्ञानवान मानव इस संसार से मुक्त होकर परम सिद्धि या अपने क्षेत्र में उच्च सफलता को प्राप्त हो गए ।
इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः।
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च॥ श्लोक 2
इस ज्ञान को आश्रय करके अर्थात धारण करके मेरे स्वरूप को प्राप्त हुए पुरुष सृष्टि के आदि में पुनः उत्पन्न नहीं होते और प्रलयकाल में भी व्याकुल नहीं होते । The Geeta Lesson 13 to 14
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में परमेश्वर ने बताया कि जो इस ज्ञान को धारण करते है वो साक्षात मेरे ही स्वरूप को या परमेश्वर की तरह उनका दिमाग हो जाता है । वो सृष्टि के आरम्भ या प्रलयकाल में व्याकुल नही होते सृष्टि के आरम्भ या प्रलयकाल का आशय सफलता के आरम्भ काल या अंतकाल तक है ।
सत्त्वं सुखे सञ्जयति रजः कर्मणि भारत।
ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे सञ्जयत्युत॥ श्लोक 9
हे अर्जुन! सत्त्वगुण सुख में लगाता है और रजोगुण कर्म में तथा तमोगुण तो ज्ञान को ढँककर प्रमाद में भी लगाता है ।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में भगवान बता रहे है सत्वगुण याने सारी अच्छाई और अच्छा चरित्र या व्यवहारिक शब्दो में कहे तो अच्छी आदतें और रजोगुण या सारे फल चाहने वाले कर्म या कुछ भाग में दम्भ या अहंकार का आचरण लोभ और कर्म में लगाएगा तमोगुण या क्रोध गुस्सा हमेशा प्रमाद या विवादित स्थिति में आपको लगाएगा ।
जिस समय इस देह में तथा अन्तःकरण और इन्द्रियों में चेतनता और विवेक शक्ति उत्पन्न होती है, उस समय ऐसा जानना चाहिए कि सत्त्वगुण बढ़ा है ।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में योगेश्वर बता रहे है सत्वगुण बढ़ा कैसे पहचानेगे जिस समय इस देह या शरीर में तथा अन्तः करण या दिमाग मे और इंद्रियों में चेतनता और विवेक शक्ति या संसार को जानने समझने की समझ उत्पन्न होती है, उस समय ऐसा जानना चाहिए कि सत्त्वगुण बढ़ा है ।
लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा।
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ॥ श्लोक 12
हे अर्जुन! रजोगुण के बढ़ने पर लोभ, प्रवृत्ति, स्वार्थबुद्धि से कर्मों का सकामभाव से आरम्भ, अशान्ति और विषय भोगों की लालसा- ये सब उत्पन्न होते हैं ।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में प्रभु रजोगुण बढ़ने के लक्षण बता रहे है, रजोगुण के बढ़ने पर लोभ या लालच और स्वार्थबुद्धि या सिर्फ अपनी भलाई चाहना कर्मो का सकामभाव से आरम्भ, अशांति और विषय भोगों की लालसा ये सब उत्पन्न होते है ।
अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च।
तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन॥ श्लोक 13
हे अर्जुन! तमोगुण के बढ़ने पर अन्तःकरण और इंन्द्रियों में अप्रकाश, कर्तव्य-कर्मों में अप्रवृत्ति और प्रमाद अर्थात व्यर्थ चेष्टा और निद्रादि अन्तःकरण की मोहिनी वृत्तियाँ – ये सब ही उत्पन्न होते हैं ।
व्यवहारिक अर्थ : तमोगुण के लक्षण अन्तः करण या दिमाग और इंद्रियों में अप्रकाश या कुछ भी समझ ना आना कर्तव्य कर्मो में अप्रवत्ति और प्रमाद या समस्याए अर्थात व्यर्थ चेष्ठा और निद्रा या नींद अन्तःकरण करण की मोहनी वर्त्तिया या दिमाग को भटकाने वाली आदते आदि होती है ।
जो निरन्तर आत्म भाव में स्थित, दुःख-सुख को समान समझने वाला, मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण में समान भाव वाला, ज्ञानी, प्रिय तथा अप्रिय को एक-सा मानने वाला और अपनी निन्दा-स्तुति में भी समान भाव वाला है । The Geeta Lesson 13 to 14
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में परमेश्वर श्री कृष्ण बता रहे है । जो निरन्तर आत्म भाव या शरीर से विरक्त भाव में स्थित, दुःख सुख को समान समझने वाला, मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण में समान भाव वाला, ज्ञानी, प्रिय तथा अप्रिय को एक सा मानने वाला और अपनी निंदा या बुराई स्तुति या गुणगान में भी एक समान भाव वाला है।
मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः सा उच्यते॥ श्लोक 25
जो मान और अपमान में सम है, मित्र और वैरी के पक्ष में भी सम है एवं सम्पूर्ण आरम्भों में कर्तापन के अभिमान से रहित है, वह पुरुष गुणातीत कहा जाता है।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में भगवान गुणातीत या जो सत्व, रज, तम तीनो गुणों से परे हो जो मान और अपमान में सम है, मित्र और वैरी के पक्ष में समान हो या एक दृष्टि से देखने वाला हो एवम सम्पूर्ण आरम्भ के कर्तापन या करने के कारण के बावजूद अभिमान या घमंड से रहित या ना हो वह जीव गुणातीत कहा जाता है ।
The Geeta Lesson 13 to 14
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः॥ श्लोक 1
श्री भगवान बोले- हे अर्जुन! यह शरीर ‘क्षेत्र’ (जैसे खेत में बोए हुए बीजों का उनके अनुरूप फल समय पर प्रकट होता है, वैसे ही इसमें बोए हुए कर्मों के संस्कार रूप बीजों का फल समय पर प्रकट होता है, इसलिए इसका नाम ‘क्षेत्र’ ऐसा कहा है) इस नाम से कहा जाता है और इसको जो जानता है, उसको ‘क्षेत्रज्ञ’ इस नाम से उनके तत्व को जानने वाले ज्ञानीजन कहते हैं ।
व्यवहारिक अर्थ : यह शरीर क्षेत्र जैसे खेत में बोए हुए बीजों का उनके अनुरूप फल समय पर इसलिए इसका नाम क्षेत्र ऐसा कहा है उसको क्षेत्रज्ञ इस नाम से उनके तत्व को जानने वाले ज्ञानीजन कहते है ।
अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम्।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः॥ श्लोक 7
श्रेष्ठता के अभिमान का अभाव, दम्भाचरण का अभाव, किसी भी प्राणी को किसी प्रकार भी न सताना, क्षमाभाव, मन-वाणी आदि की सरलता, श्रद्धा-भक्ति सहित गुरु की सेवा, बाहर-भीतर की शुद्धि अन्तःकरण की स्थिरता और मन-इन्द्रियों सहित शरीर का निग्रह ।
(सत्यतापूर्वक शुद्ध व्यवहार से द्रव्य की और उसके अन्न से आहार की तथा यथायोग्य बर्ताव से आचरणों की और जल-मृत्तिकादि से शरीर की शुद्धि को बाहर की शुद्धि कहते हैं तथा राग, द्वेष और कपट आदि विकारों का नाश होकर अन्तःकरण का स्वच्छ हो जाना भीतर की शुद्धि कही जाती है।)
व्यवहारिक अर्थ : श्रेष्टता के अभिमान का अभाव, दम्भचारन का अभाव, किसी भी प्राणी को किसी तरह से न सताना, माफ करना, मन वाणी आदि की सरलता, श्रद्धा भक्ति के साथ अपने गुरु की सेवा, बाहर भीतर की शुद्धि अन्तः करन की स्थिरता और मन इंद्रियों सहित शरीर का निग्रह ।
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् ।।श्लोक 8
इस लोक और परलोक के सम्पूर्ण भोगों में आसक्ति का अभाव और अहंकार का भी अभाव, जन्म, मृत्यु, जरा और रोग आदि में दुःख और दोषों का बार-बार विचार करना ।
व्यवहारिक अर्थ : इस लोक और परलोक के सम्पूर्ण भोग या सुख सुविधाओं के प्रति असत्ति या लगाव का अभाव और अहंकार का अभाव, जन्म, मृत्यु, जरा और रोग आदि में दुःख और दोषों का बार बार विचार करना।
असक्तिरनभिष्वङ्ग: पुत्रदारगृहादिषु।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु॥ श्लोक 9
पुत्र, स्त्री, घर और धन आदि में आसक्ति का अभाव, ममता का न होना तथा प्रिय और अप्रिय की प्राप्ति में सदा ही चित्त का सम रहना ।
व्यवहारिक अर्थ : पुत्र, स्त्री, घर और धन आदि में असत्ति का अभाव, ममता का न होना तथा प्रिय और अप्रिय जो भी मिले उसमे चित्त समान या एक जैसा रहे
श्रीभगवानुवाच परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानं मानमुत्तमम्।
यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः॥ श्लोक 1
श्री भगवान बोले- ज्ञानों में भी अतिउत्तम उस परम ज्ञान को मैं फिर कहूँगा, जिसको जानकर सब मुनिजन इस संसार से मुक्त होकर परम सिद्धि को प्राप्त हो गए हैं ।
व्यवहारिक अर्थ : श्री भगवान ने पुनः इस गीता ज्ञान को ज्ञानों में अतिउत्तम उस परम ज्ञान कहा है, जिसको जानकर सब मुनिजन या ज्ञानवान मानव इस संसार से मुक्त होकर परम सिद्धि या अपने क्षेत्र में उच्च सफलता को प्राप्त हो गए ।
इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः।
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च॥ श्लोक 2
इस ज्ञान को आश्रय करके अर्थात धारण करके मेरे स्वरूप को प्राप्त हुए पुरुष सृष्टि के आदि में पुनः उत्पन्न नहीं होते और प्रलयकाल में भी व्याकुल नहीं होते । The Geeta Lesson 13 to 14
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में परमेश्वर ने बताया कि जो इस ज्ञान को धारण करते है वो साक्षात मेरे ही स्वरूप को या परमेश्वर की तरह उनका दिमाग हो जाता है । वो सृष्टि के आरम्भ या प्रलयकाल में व्याकुल नही होते सृष्टि के आरम्भ या प्रलयकाल का आशय सफलता के आरम्भ काल या अंतकाल तक है ।
सत्त्वं सुखे सञ्जयति रजः कर्मणि भारत।
ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे सञ्जयत्युत॥ श्लोक 9
हे अर्जुन! सत्त्वगुण सुख में लगाता है और रजोगुण कर्म में तथा तमोगुण तो ज्ञान को ढँककर प्रमाद में भी लगाता है ।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में भगवान बता रहे है सत्वगुण याने सारी अच्छाई और अच्छा चरित्र या व्यवहारिक शब्दो में कहे तो अच्छी आदतें और रजोगुण या सारे फल चाहने वाले कर्म या कुछ भाग में दम्भ या अहंकार का आचरण लोभ और कर्म में लगाएगा तमोगुण या क्रोध गुस्सा हमेशा प्रमाद या विवादित स्थिति में आपको लगाएगा ।
सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते।
ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत॥ श्लोक 11
जिस समय इस देह में तथा अन्तःकरण और इन्द्रियों में चेतनता और विवेक शक्ति उत्पन्न होती है, उस समय ऐसा जानना चाहिए कि सत्त्वगुण बढ़ा है ।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में योगेश्वर बता रहे है सत्वगुण बढ़ा कैसे पहचानेगे जिस समय इस देह या शरीर में तथा अन्तः करण या दिमाग मे और इंद्रियों में चेतनता और विवेक शक्ति या संसार को जानने समझने की समझ उत्पन्न होती है, उस समय ऐसा जानना चाहिए कि सत्त्वगुण बढ़ा है ।
लोभः प्रवृत्तिरारम्भः कर्मणामशमः स्पृहा।
रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ॥ श्लोक 12
हे अर्जुन! रजोगुण के बढ़ने पर लोभ, प्रवृत्ति, स्वार्थबुद्धि से कर्मों का सकामभाव से आरम्भ, अशान्ति और विषय भोगों की लालसा- ये सब उत्पन्न होते हैं ।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में प्रभु रजोगुण बढ़ने के लक्षण बता रहे है, रजोगुण के बढ़ने पर लोभ या लालच और स्वार्थबुद्धि या सिर्फ अपनी भलाई चाहना कर्मो का सकामभाव से आरम्भ, अशांति और विषय भोगों की लालसा ये सब उत्पन्न होते है ।
अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च।
तमस्येतानि जायन्ते विवृद्धे कुरुनन्दन॥ श्लोक 13
हे अर्जुन! तमोगुण के बढ़ने पर अन्तःकरण और इंन्द्रियों में अप्रकाश, कर्तव्य-कर्मों में अप्रवृत्ति और प्रमाद अर्थात व्यर्थ चेष्टा और निद्रादि अन्तःकरण की मोहिनी वृत्तियाँ – ये सब ही उत्पन्न होते हैं ।
व्यवहारिक अर्थ : तमोगुण के लक्षण अन्तः करण या दिमाग और इंद्रियों में अप्रकाश या कुछ भी समझ ना आना कर्तव्य कर्मो में अप्रवत्ति और प्रमाद या समस्याए अर्थात व्यर्थ चेष्ठा और निद्रा या नींद अन्तःकरण करण की मोहनी वर्त्तिया या दिमाग को भटकाने वाली आदते आदि होती है ।
समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः।
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः॥ श्लोक 24
जो निरन्तर आत्म भाव में स्थित, दुःख-सुख को समान समझने वाला, मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण में समान भाव वाला, ज्ञानी, प्रिय तथा अप्रिय को एक-सा मानने वाला और अपनी निन्दा-स्तुति में भी समान भाव वाला है । The Geeta Lesson 13 to 14
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में परमेश्वर श्री कृष्ण बता रहे है । जो निरन्तर आत्म भाव या शरीर से विरक्त भाव में स्थित, दुःख सुख को समान समझने वाला, मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण में समान भाव वाला, ज्ञानी, प्रिय तथा अप्रिय को एक सा मानने वाला और अपनी निंदा या बुराई स्तुति या गुणगान में भी एक समान भाव वाला है।
मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः सा उच्यते॥ श्लोक 25
जो मान और अपमान में सम है, मित्र और वैरी के पक्ष में भी सम है एवं सम्पूर्ण आरम्भों में कर्तापन के अभिमान से रहित है, वह पुरुष गुणातीत कहा जाता है।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में भगवान गुणातीत या जो सत्व, रज, तम तीनो गुणों से परे हो जो मान और अपमान में सम है, मित्र और वैरी के पक्ष में समान हो या एक दृष्टि से देखने वाला हो एवम सम्पूर्ण आरम्भ के कर्तापन या करने के कारण के बावजूद अभिमान या घमंड से रहित या ना हो वह जीव गुणातीत कहा जाता है ।
The Geeta Lesson 13 to 14
Bhawani Singh
Young-Energetic Person, Animation Creator, Owner Of माँ शक्ति Creation-Graphics/3D/Web Design Services