The Geeta Lesson 15 to 16

  • अध्याय : 15 पुरूषोत्तम योग का व्यवहारिक ज्ञान

निर्मानमोहा जितसङ्गदोषाअध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।

द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसञ्ज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्‌॥श्लोक 5

जिनका मान और मोह नष्ट हो गया है, जिन्होंने आसक्ति रूप दोष को जीत लिया है, जिनकी परमात्मा के स्वरूप में नित्य स्थिति है और जिनकी कामनाएँ पूर्ण रूप से नष्ट हो गई हैं- वे सुख-दुःख नामक द्वन्द्वों से विमुक्त ज्ञानीजन उस अविनाशी परम पद को प्राप्त होते हैं ।

व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में परमेश्वर भगवान श्री कृष्ण समझा रहें है जिसका मान सम्मान की इक्छा मोह (लगाव)नष्ट हो गया है, जिन्होंने इन दोष को जीत लिया है जिनकी परमात्मा के स्वरूप में नित्य स्थिति है और जिनकी कामनाएं पूर्ण रूप से नष्ट हो गई है वे सुख – दुःख ।

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अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः।

प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्‌॥ श्लोक 14

मैं ही सब प्राणियों के शरीर में स्थित रहने वाला प्राण और अपान से संयुक्त वैश्वानर अग्नि रूप होकर चार प्रकार के अन्न को पचाता हूँ ।

(भक्ष्य, भोज्य, लेह्य और चोष्य, ऐसे चार प्रकार के अन्न होते हैं, उनमें जो चबाकर खाया जाता है, वह ‘भक्ष्य’ है- जैसे रोटी आदि। जो निगला जाता है, वह ‘भोज्य’ है- जैसे दूध आदि तथा जो चाटा जाता है, वह ‘लेह्य’ है- जैसे चटनी आदि और जो चूसा जाता है, वह ‘चोष्य’ है- जैसे ईख आदि)

व्यवहारिक अर्थ : इस व्यववहारिक श्लोक में परमेश्वर श्री कृष्ण समझा रहे है । की में सब प्राणियों के शरीर में स्थित रहने वाला प्राण और अपान से संयुक्त से अग्नि रूप होकर चार प्रकार के अन्न को पचाता हु ।

इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ।

एतद्‍बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत॥ श्लोक 20

हे निष्पाप अर्जुन! इस प्रकार यह अति रहस्ययुक्त गोपनीय शास्त्र मेरे द्वारा कहा गया, इसको तत्त्व से जानकर मनुष्य ज्ञानवान और कृतार्थ हो जाता है ।

व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में भगवान ने अर्जुन को को कहा कि यह अति रहस्ययुक्त गोपनीय शास्त्र या ज्ञान कहा और जो इसे तत्व से जानेगा या इसका गहरा अध्ययन करेगा वो मनुष्य ज्ञानवान और कृतार्थ हो जाता है ।

  • अध्याय : 16 देवी तथा आसुरी स्वभाव का व्यवहारिक ज्ञान 

अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्‌।

दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्‌॥ श्लोक 2

मन, वाणी और शरीर से किसी प्रकार भी किसी को कष्ट न देना, यथार्थ और प्रिय भाषण अपना अपकार करने वाले पर भी क्रोध का न होना, कर्मों में कर्तापन के अभिमान का त्याग, अन्तःकरण की उपरति अर्थात्‌ चित्त की चञ्चलता का अभाव, किसी की भी निन्दादि न करना, सब भूतप्राणियों में हेतुरहित दया, इन्द्रियों का विषयों के साथ संयोग होने पर भी उनमें आसक्ति का न होना, कोमलता, लोक और शास्त्र से विरुद्ध आचरण में लज्जा और व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव । The Geeta Lesson 15 to 16

(अन्तःकरण और इन्द्रियों के द्वारा जैसा निश्चय किया हो, वैसे-का-वैसा ही प्रिय शब्दों में कहने का नाम ‘सत्यभाषण’ है)

व्यवहारिक अर्थ : श्लोक का अर्थ बिलकुल पारदर्शी है । और व्यवहारिक है । इसलिए इसको सरल करने की आवश्यकता नही ।

तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहोनातिमानिता।

भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत॥ श्लोक 3

तेज एवं किसी में भी शत्रुभाव का न होना और अपने में पूज्यता के अभिमान का अभाव- ये सब तो हे अर्जुन! दैवी सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुए पुरुष के लक्षण हैं ।

, क्षमा, धैर्य, बाहर की शुद्धि ।

व्यवहारिक अर्थ : (श्रेष्ठ पुरुषों की उस शक्ति का नाम ‘तेज’ है कि जिसके प्रभाव से उनके सामने विषयासक्त और निम्न प्रकृति वाले मनुष्य भी प्रायः अन्यायाचरण से रुककर उनके कथनानुसार श्रेष्ठ कर्मों में प्रवृत्त हो जाते हैं) तेज एवम किसी मे भी शत्रुभाव या किसी को भी अपना शत्रु ना मानना अपने मे पूज्यता के अभिमान का अभाव ये सब देवी संपदा को लेकर उत्पन्न हुए पुरुष, मानव के लक्षण है । 

दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च।

अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम्‌॥ श्लोक 4

हे पार्थ! दम्भ, घमण्ड और अभिमान तथा क्रोध, कठोरता और अज्ञान भी- ये सब आसुरी सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुए पुरुष के लक्षण हैं ।

व्यवहारिक अर्थ :  हे पार्थ दम्भ, घमंड और अभिमान तथा क्रोध, कठोरता और अज्ञान भी ये सब आसुरी संपदा को लेकर उत्पन्न हुए पुरुष के लक्षण हैं ।

दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता।

मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव॥ श्लोक 5

दैवी सम्पदा मुक्ति के लिए और आसुरी सम्पदा बाँधने के लिए मानी गई है। इसलिए हे अर्जुन! तू शोक मत कर, क्योंकि तू दैवी सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुआ है ।

व्यवहारिक अर्थ : देवी संपदा या आपकी अच्छाई मुक्ति के लिए आसुरी संपदा या आपकी बुराई आपको बांधने के लिए मानी गई है । इसलिए हे अर्जुन तू शोक मत कर, क्योकि तू देवी संपदा को लेकर उत्पन्न हुआ है ।

द्वौ भूतसर्गौ लोकऽस्मिन्दैव आसुर एव च।

दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ में श्रृणु॥ श्लोक 6

हे अर्जुन! इस लोक में भूतों की सृष्टि यानी मनुष्य समुदाय दो ही प्रकार का है, एक तो दैवी प्रकृति वाला और दूसरा आसुरी प्रकृति वाला। उनमें से दैवी प्रकृति वाला तो विस्तारपूर्वक कहा गया, अब तू आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य समुदाय को भी विस्तारपूर्वक मुझसे सुन ।

व्यवहारिक अर्थ :  इस श्लोक में योगेश्वर ने मनुष्यो को 2 प्रकार की प्रकृति में बाटा है एक दैवी प्रकृति वाला और दूसरा आसुरी प्रकृति वाला, अब तू आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य या इंसानों को मुझसे सुन इस सच्चाई व व्यवहारिक बात से हम सभी परिचित है। The Geeta Lesson 15 to 16

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः।

न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते॥ श्लोक 7

आसुर स्वभाव वाले मनुष्य प्रवृत्ति और निवृत्ति- इन दोनों को ही नहीं जानते। इसलिए उनमें न तो बाहर-भीतर की शुद्धि है, न श्रेष्ठ आचरण है और न सत्य भाषण ही है ।

व्यवहारिक अर्थ : आसुर स्वभाव वाले मनुष्य प्रवत्ति या एक स्वभाव निवर्त्ति या संतुष्टि इन दोनों को ही नही जानते । इसलिए उनमें न तो बाहर -भीतर की शुद्धि है, न श्रेष्ठ आचरण है और न सत्य भाषण बोलने की प्रव्रत्ति ही है । 

असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम्‌।

अपरस्परसम्भूतं किमन्यत्कामहैतुकम्‌॥ श्लोक 8

वे आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य कहा करते हैं कि जगत्‌ आश्रयरहित, सर्वथा असत्य और बिना ईश्वर के, अपने-आप केवल स्त्री-पुरुष के संयोग से उत्पन्न है, अतएव केवल काम ही इसका कारण है। इसके सिवा और क्या है ।

व्यवहारिक अर्थ : वे आसुरी प्रकृति या स्वभाव वाले मनुष्य कहा करते है कि जगत आश्रयरहित सवर्था असत्य और बिना ईश्वर के अपने आप केवल स्त्री पुरुष के संयोग से उत्पन्न है एतएव केवल काम ही इसका है । इसके सिवा और काम है काम के अर्थ से हम सभी परिचित है ।

एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः।

प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः॥ श्लोक 9

इस मिथ्या ज्ञान को अवलम्बन करके- जिनका स्वभाव नष्ट हो गया है तथा जिनकी बुद्धि मन्द है, वे सब अपकार करने वाले क्रुरकर्मी मनुष्य केवल जगत्‌ के नाश के लिए ही समर्थ होते हैं । 

व्यवहारिक अर्थ :  इस मिथ्या ज्ञान को अवलंब करके या मानकर जिनका स्वभाव नष्ट हो गया है तथा जिनकी बुद्धि मंद है, वे सब उपकार करने वाले कुरकर्मी मनुष्य केवल जगत के नाश के लिए ही समर्थ होते है ।

काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः।

मोहाद्‍गृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः॥ श्लोक 10

वे दम्भ, मान और मद से युक्त मनुष्य किसी प्रकार भी पूर्ण न होने वाली कामनाओं का आश्रय लेकर, अज्ञान से मिथ्या सिद्धांतों को ग्रहण करके भ्रष्ट आचरणों को धारण करके संसार में विचरते हैं ।

व्यवहारिक अर्थ : वे दम्भ, मान और मद से युक्त मनुष्य किसी प्रकार भी पूर्ण न होने वाली कामनाओं का आश्रय लेकर, अज्ञान से मिथ्या सिद्धांतो को ग्रहण करके भृष्ट आचरणों को धारण करके संसार में विचरते है । 

चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः।

कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः॥ श्लोक 11

तथा वे मृत्युपर्यन्त रहने वाली असंख्य चिन्ताओं का आश्रय लेने वाले, विषयभोगों के भोगने में तत्पर रहने वाले और ‘इतना ही सुख है’ इस प्रकार मानने वाले होते हैं ।

व्यवहारिक अर्थ :  श्लोक में योगेश्वर बता रहे है जो लोग उनके इस विज्ञान में अविश्वाश दिखाते है, वे मृत्युपर्यंत या मौत तक रहने वाली असंख्य चिंताओं का आश्रय लेने वाले, विषयभोगों के भोगने में तत्पर रहने वाले और इतना ही सुख है इस प्रकार मानने वाले या इस विज्ञान को मानने वाले होते हैं ।

आशापाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः।

ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्चयान्‌॥ श्लोक 12

वे आशा की सैकड़ों फाँसियों से बँधे हुए मनुष्य काम-क्रोध के परायण होकर विषय भोगों के लिए अन्यायपूर्वक धनादि पदार्थों का संग्रह करने की चेष्टा करते हैं ।

व्यवहारिक अर्थ : श्लोक में परमेश्वर बता रहे है वे सैकड़ो आशाओं की फांसियों से बंधे हुए मनुष्य काम-क्रोध के परायण होकर विषय भोगों के लिए अन्यायपूर्वक धनादि प्रदार्थो का संग्रह करने की चेष्टा करते है ।

इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम्‌।

इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम्‌॥ श्लोक 13

वे सोचा करते हैं कि मैंने आज यह प्राप्त कर लिया है और अब इस मनोरथ को प्राप्त कर लूँगा। मेरे पास यह इतना धन है और फिर भी यह हो जाएगा ।

व्यवहारिक अर्थ : वे मनुष्य यह सोचते है कि आज मेने यह प्राप्त कर लिया है और अब इस मनोरथ को प्राप्त कर लूंगा । मेरे पास यह इतना धन है और फिर भी यह हो जाएगा । इस श्लोक में ईश्वर हम इंसानों को कभी न तृप्त होने इक्छाओ के विषय मे बता रहे है ।

असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि।

ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी॥ श्लोक 14

वह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया और उन दूसरे शत्रुओं को भी मैं मार डालूँगा। मैं ईश्वर हूँ, ऐश्र्वर्य को भोगने वाला हूँ। मै सब सिद्धियों से युक्त हूँ और बलवान्‌ तथा सुखी हूँ । The Geeta Lesson 15 to 16

व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में ईश्वर हमें इंसानी प्रवत्तियों से सावधान कर रहे है । वह बता रहे है मनुष्य सोचते है वह शत्रु मेरे द्वारा मारा गया और उन दूसरे शत्रुओं को भी में मार डालूंगा, में खुद भगवान हु, ऐश्वर्य को भोगने वाला हूं । में सब सिद्धियों से युक्त ह और बलवान तथा सुखी हुँ । 

आढयोऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया।

यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः॥

अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः।

प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ॥ श्लोक 15-16

मैं बड़ा धनी और बड़े कुटुम्ब वाला हूँ। मेरे समान दूसरा कौन है? मैं यज्ञ करूँगा, दान दूँगा और आमोद-प्रमोद करूँगा। इस प्रकार अज्ञान से मोहित रहने वाले तथा अनेक प्रकार से भ्रमित चित्त वाले मोहरूप जाल से समावृत और विषयभोगों में अत्यन्त आसक्त आसुरलोग महान्‌ अपवित्र नरक में गिरते हैं ।

व्यवहारिक अर्थ :  इस श्लोक में ईश्वर हमें अपने अहंकार से सावधान कर रहे है मनुष्य सोचते है में बड़ा धनी और बड़े कुटुंब वाला हूं । मेरे समान दूसरा कौन है ? में यज्ञ करूँगा, दान दूंगा और आमोद प्रमोद करूँगा । इस प्रकार अज्ञान से मोहित रहने वाले अनेक प्रकार से भृमित चित्त वाले मोहरूप जाल से समवर्त और विषयभोगो में अत्यंत आसक्त आसुरलोग महान अपवित्र नरक में गिरते हैं । 

आत्मसम्भाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः।

यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम्‌॥ श्लोक 17

वे अपने-आपको ही श्रेष्ठ मानने वाले घमण्डी पुरुष धन और मान के मद से युक्त होकर केवल नाममात्र के यज्ञों द्वारा पाखण्ड से शास्त्रविधिरहित यजन करते हैं ।

व्यवहारिक अर्थ : इसमें पुनः हमारी मानवी प्रवत्तियों से योगेश्वर सावधान कर रहे है । वे अपने आप को श्रेष्ठ मानने वाले घमंडी पुरुष धन और मान के मद से युक्त होकर केवल नाममात्र के यज्ञ द्वारा पाखण्ड से शास्त्रविधि रहित यजन करते हैं ।

अहङ्‍कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः।

मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः॥ श्लोक 18

वे अहंकार, बल, घमण्ड, कामना और क्रोधादि के परायण और दूसरों की निन्दा करने वाले पुरुष अपने और दूसरों के शरीर में स्थित मुझ अन्तर्यामी से द्वेष करने वाले होते हैं ।

व्यवहारिक अर्थ : वे अहंकार, बल, घमंड, कामना और क्रोधादि के परायण और दूसरों की निंदा करने वाले पुरुष अपने और दूसरों की निंदा करने वाले पुरुष अपने और दूसरे के शरीर में स्थित मुझ अंतर्यामी से द्वेष करने वाले होते हैं ।

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।

कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्‌॥ श्लोक21

काम, क्रोध तथा लोभ- ये तीन प्रकार के नरक के द्वार आत्मा का नाश करने वाले अर्थात्‌ उसको अधोगति में ले जाने वाले हैं। अतएव इन तीनों को त्याग देना चाहिए

व्यवहारिक अर्थ : अत्यंत व्यवहारिक श्लोक इस श्लोक में योगेश्वर ने काम, क्रोध तथा लोभ को तीन प्रकार के नरक के द्वार बताया है आत्मा का नाश करने वाले अर्थात उसको अधोगति में ले जाने वाले है । अतएव इनको छोड़ देना चाहिए 

 ( सर्व अनर्थों के मूल और नरक की प्राप्ति में हेतु होने से यहाँ काम, क्रोध और लोभ को ‘नरक के द्वार’ कहा है)

एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः।

आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम्‌॥ श्लोक 22

हे अर्जुन! इन तीनों नरक के द्वारों से मुक्त पुरुष अपने कल्याण का आचरण करता है (अपने उद्धार के लिए भगवदाज्ञानुसार बरतना ही ‘अपने कल्याण का आचरण करना’ है), इससे वह परमगति को जाता है अर्थात्‌ मुझको प्राप्त हो जाता है ।

व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में परमेश्वर ने बताया है जो मनुष्य इन तीनों नरको से मुक्त है अपने कल्याण या अपनी सफलता का आचरण करता है अपने उद्धार के लिए जाता है और मुझको प्राप्त होता है ।

यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।

न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्‌॥ श्लोक 23

जो पुरुष शास्त्र विधि को त्यागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, वह न सिद्धि को प्राप्त होता है, न परमगति को और न सुख को ही ।

व्यवहारिक अर्थ :  इस व्यवहारिक श्लोक में योगेश्वर बता रहे है । जो पुरुष शास्त्र विधि को त्यागकर अपनी इक्छा से मनमाना आचरण करता है, वह न सिद्धि को प्राप्त होता है, न परमगति को और न सुख को प्राप्त होता है । The Geeta Lesson 15 to 16

  1. The Geeta Lesson 01
  2. The Geeta Lesson 02
  3. The Geeta Lesson 03
  4. The Geeta Lesson 4 to 5
  5. The Geeta Lesson 6 To 7
  6. The Geeta Lesson 9 to 12
  7. The Geeta Lesson 13 to 14
  8. The Geeta Lesson 15 to 16
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