श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः॥ श्लोक 3
हे भारत! सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके अन्तःकरण के अनुरूप होती है। यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिए जो पुरुष जैसी श्रद्धावाला है, वह स्वयं भी वही है ।
व्यवहारिक अर्थ : इस व्यवहारिक श्लोक में परमेश्वर समझा रहे है सभी मानवो की श्रद्धा या उनका विश्वाश उनके अन्तः करण या विश्वाश के अनुरूप होती है इसलिए जो पुरुष जैसी श्रद्धावाला है वह स्वयं भी वही है ।
जो शरीर रूप से स्थित भूत समुदाय को और अन्तःकरण में स्थित मुझ परमात्मा को भी कृश करने वाले हैं उन अज्ञानियों को तू आसुर स्वभाव वाले जान ।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में योगेश्वर ने पाखण्ड का खंडन किया है जो शरीर मे स्थित आत्मा जिसे परमात्मा का अंश कहा जाता है उसे कष्ट या तकलीफ पहुचाते है । उन्हें असुर कहा गया है
(शास्त्र से विरुद्ध उपवासादि घोर आचरणों द्वारा शरीर को सुखाना एवं भगवान् के अंशस्वरूप जीवात्मा को क्लेश देना, भूत समुदाय को और अन्तर्यामी परमात्मा को ”कृश करना” है।)
आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः।
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं श्रृणु॥श्लोक 7
भोजन भी सबको अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार तीन प्रकार का प्रिय होता है। और वैसे ही यज्ञ, तप और दान भी तीन-तीन प्रकार के होते हैं। उनके इस पृथक्-पृथक् भेद को तू मुझ से सुन ।
व्यवहारिक अर्थ : इस व्यवहारिक श्लोक में परमेश्वर ने भोजन के विषय मे बताया है कि भोजन भी सबको अपनी अपनी प्रकृति के अनुसार तीन प्रकार का प्रिय होता है । वैसे ही यज्ञ, तप और दान भी तीन तीन प्रकार के होते हैं । उनके पृथक पृथक भेद को तू मुझ से सुन ।
आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ाने वाले, रसयुक्त, चिकने और स्थिर रहने वाले तथा स्वभाव से ही मन को प्रिय- ऐसे आहार अर्थात् भोजन करने के पदार्थ सात्त्विक पुरुष को प्रिय होते हैं ।
व्यवहारिक अर्थ : अत्यंत वैज्ञानिक श्लोक इसमें परमेश्वर शरीर के लिए अच्छा भोजन बता रहे है आयु, बुध्दि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ाने वाले रसयुक्त, चिकने और स्थिर रहने वाले तथा स्वभाव से ही मन को प्रिय ऐसे आहार अर्थात भोजन करने के पदार्थ सात्त्विक पुरुष अच्छे मनुष्य को प्रिय होते है ।
(जिस भोजन का सार शरीर में बहुत काल तक रहता है, उसको स्थिर रहने वाला कहते हैं। इसमें दूध, घी, मक्खन इत्यादि आदि )
कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः।
आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः॥ श्लोक 9
कड़वे, खट्टे, लवणयुक्त, बहुत गरम, तीखे, रूखे, दाहकारक और दुःख, चिन्ता तथा रोगों को उत्पन्न करने वाले आहार अर्थात् भोजन करने के पदार्थ राजस पुरुष को प्रिय होते हैं ।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक शरीर के लिए कम हानिकारक पर प्रचलित भोजन के विषय मे बता रहे है, कड़वे, खट्टे, लवणयुक्त, बहुत गरम, तीखे, रूखे, दाहकारक और दुःख, चिंता तथा रोगों को उत्पन्न करने वाले आहार अर्थात भोजन राजस पुरुष को प्रिय होते है।
यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्।
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्॥ श्लोक 10
जो भोजन अधपका, रसरहित, दुर्गन्धयुक्त, बासी और उच्छिष्ट है तथा जो अपवित्र भी है, वह भोजन तामस पुरुष को प्रिय होता है ।
व्यवहारिक अर्थ : जो भोजन अधपका यानी कच्चा, रासरहित, दुर्गंध युक्त जिसमे से बास आती हो और उच्छिष्ट याने ऐसा भोजन जिसे देखकर मन घृणा आती हो तथा जो अपवित्र हो यहाँ भगवान ने स्पष्ट शब्दों में मांसाहार के विषय में बात की है यह भोजन तामस पुरुष को प्रिय होता है । The Geeta Lesson 17
परन्तु हे अर्जुन! केवल दम्भाचरण के लिए अथवा फल को भी दृष्टि में रखकर जो यज्ञ किया जाता है, उस यज्ञ को तू राजस जान ।
व्यवहारिक अर्थ : केवल दम्भाचरण या अपने अहंकार के लिए अथवा फल को भी दृष्टि में रखकर जो यज्ञ किया जाता है, उस यज्ञ को तू राजस जान । यज्ञ वो समस्त क्रियाएं जिनसे फल उत्पन्न होने की सम्भावनाए होती है ।
मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते॥ श्लोक 16
मन की प्रसन्नता, शान्तभाव, भगवच्चिन्तन करने का स्वभाव, मन का निग्रह और अन्तःकरण के भावों की भलीभाँति पवित्रता, इस प्रकार यह मन सम्बन्धी तप कहा जाता है ।
व्यवहारिक अर्थ : मन की प्रसन्नता, शांतभाव, भगवत चिंतन करने का स्वभाव, मन का निग्रह और अन्तः करण के भावों या विचारों की भली भांति पवित्रता, इस प्रकार यह मन संबंधी तप कहा जाता है । इस श्लोक ने परमेश्वर ने मन के तप के विषय में बात की है ।
सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत्।
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम्॥ श्लोक 18
जो तप सत्कार, मान और पूजा के लिए तथा अन्य किसी स्वार्थ के लिए भी स्वभाव से या पाखण्ड से किया जाता है, वह अनिश्चित
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में योगेश्वर ने पुनः पाखण्ड का खंडन किया है जो तप सत्कार, मान और पूजा के लिए तथा अन्य किसी स्वार्थ के लिए भी स्वभाव से या पाखण्ड से किया जाता है, वह अनिश्चित एवम क्षणिक फलवाला तप यहाँ राजस कहा गया है । (‘अनिश्चित फलवाला’ उसको कहते हैं कि जिसका फल होने न होने में शंका हो।) एवं क्षणिक फलवाला तप यहाँ राजस कहा गया है ।
मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः।
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम्॥ श्लोक 19
जो तप मूढ़तापूर्वक हठ से, मन, वाणी और शरीर की पीड़ा के सहित अथवा दूसरे का अनिष्ट करने के लिए किया जाता है- वह तप तामस कहा गया है ।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में योगेश्वर समझाया है जो तप मूढतापूर्वक, हठ से, मन, वाणी और शरीर की पीड़ा के सहित अथवा दूसरे का अनिष्ट करने के लिए किया जाता है वह तामस कहा गया है ।
यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः।
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम्॥ श्लोक 21
किन्तु जो दान क्लेशपूर्वक तथा प्रत्युपकार के प्रयोजन से अथवा फल को दृष्टि में रखकर फिर दिया जाता है, वह दान राजस कहा गया है ।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में परमेश्वर ने राजस दान के विषय मे बताया है किंतु जो दान क्लेशपूर्वक तथा प्रत्युपकार के प्रयोजन से अथवा फल को दृष्टि में रखकर फिर दिया जाता है, वह दान राजस कहा गया है । (जैसे प्रायः वर्तमान समय के चन्दे-चिट्ठे आदि में धन दिया जाता है।) प्रत्युपकार (अर्थात् मान बड़ाई, प्रतिष्ठा और स्वर्गादि की प्राप्ति के लिए अथवा रोगादि की निवृत्ति के लिए।)
अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते।
असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम्॥ श्लोक 22
जो दान बिना सत्कार के अथवा तिरस्कारपूर्वक अयोग्य देश-काल में और कुपात्र के प्रति दिया जाता है, वह दान तामस कहा गया है ।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में परमेश्वर ने तामस दान के विषय में बताया है जो दान बिना सत्कार के अथवा तिरस्कारपूर्वक अयोग्य देश-काल में और कुपात्र के प्रति दिया जाता है, वह दान तामस दान कहा जाता है । The Geeta Lesson 17
The Geeta Lesson 17
सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः॥ श्लोक 3
हे भारत! सभी मनुष्यों की श्रद्धा उनके अन्तःकरण के अनुरूप होती है। यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिए जो पुरुष जैसी श्रद्धावाला है, वह स्वयं भी वही है ।
व्यवहारिक अर्थ : इस व्यवहारिक श्लोक में परमेश्वर समझा रहे है सभी मानवो की श्रद्धा या उनका विश्वाश उनके अन्तः करण या विश्वाश के अनुरूप होती है इसलिए जो पुरुष जैसी श्रद्धावाला है वह स्वयं भी वही है ।
कर्शयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः।
मां चैवान्तःशरीरस्थं तान्विद्ध्यासुरनिश्चयान्॥ श्लोक 6
जो शरीर रूप से स्थित भूत समुदाय को और अन्तःकरण में स्थित मुझ परमात्मा को भी कृश करने वाले हैं उन अज्ञानियों को तू आसुर स्वभाव वाले जान ।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में योगेश्वर ने पाखण्ड का खंडन किया है जो शरीर मे स्थित आत्मा जिसे परमात्मा का अंश कहा जाता है उसे कष्ट या तकलीफ पहुचाते है । उन्हें असुर कहा गया है
(शास्त्र से विरुद्ध उपवासादि घोर आचरणों द्वारा शरीर को सुखाना एवं भगवान् के अंशस्वरूप जीवात्मा को क्लेश देना, भूत समुदाय को और अन्तर्यामी परमात्मा को ”कृश करना” है।)
आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः।
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं श्रृणु॥श्लोक 7
भोजन भी सबको अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार तीन प्रकार का प्रिय होता है। और वैसे ही यज्ञ, तप और दान भी तीन-तीन प्रकार के होते हैं। उनके इस पृथक्-पृथक् भेद को तू मुझ से सुन ।
व्यवहारिक अर्थ : इस व्यवहारिक श्लोक में परमेश्वर ने भोजन के विषय मे बताया है कि भोजन भी सबको अपनी अपनी प्रकृति के अनुसार तीन प्रकार का प्रिय होता है । वैसे ही यज्ञ, तप और दान भी तीन तीन प्रकार के होते हैं । उनके पृथक पृथक भेद को तू मुझ से सुन ।
आयुः सत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः।
रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः॥ श्लोक 8
आयु, बुद्धि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ाने वाले, रसयुक्त, चिकने और स्थिर रहने वाले तथा स्वभाव से ही मन को प्रिय- ऐसे आहार अर्थात् भोजन करने के पदार्थ सात्त्विक पुरुष को प्रिय होते हैं ।
व्यवहारिक अर्थ : अत्यंत वैज्ञानिक श्लोक इसमें परमेश्वर शरीर के लिए अच्छा भोजन बता रहे है आयु, बुध्दि, बल, आरोग्य, सुख और प्रीति को बढ़ाने वाले रसयुक्त, चिकने और स्थिर रहने वाले तथा स्वभाव से ही मन को प्रिय ऐसे आहार अर्थात भोजन करने के पदार्थ सात्त्विक पुरुष अच्छे मनुष्य को प्रिय होते है ।
(जिस भोजन का सार शरीर में बहुत काल तक रहता है, उसको स्थिर रहने वाला कहते हैं। इसमें दूध, घी, मक्खन इत्यादि आदि )
कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः।
आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः॥ श्लोक 9
कड़वे, खट्टे, लवणयुक्त, बहुत गरम, तीखे, रूखे, दाहकारक और दुःख, चिन्ता तथा रोगों को उत्पन्न करने वाले आहार अर्थात् भोजन करने के पदार्थ राजस पुरुष को प्रिय होते हैं ।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक शरीर के लिए कम हानिकारक पर प्रचलित भोजन के विषय मे बता रहे है, कड़वे, खट्टे, लवणयुक्त, बहुत गरम, तीखे, रूखे, दाहकारक और दुःख, चिंता तथा रोगों को उत्पन्न करने वाले आहार अर्थात भोजन राजस पुरुष को प्रिय होते है।
यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्।
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्॥ श्लोक 10
जो भोजन अधपका, रसरहित, दुर्गन्धयुक्त, बासी और उच्छिष्ट है तथा जो अपवित्र भी है, वह भोजन तामस पुरुष को प्रिय होता है ।
व्यवहारिक अर्थ : जो भोजन अधपका यानी कच्चा, रासरहित, दुर्गंध युक्त जिसमे से बास आती हो और उच्छिष्ट याने ऐसा भोजन जिसे देखकर मन घृणा आती हो तथा जो अपवित्र हो यहाँ भगवान ने स्पष्ट शब्दों में मांसाहार के विषय में बात की है यह भोजन तामस पुरुष को प्रिय होता है । The Geeta Lesson 17
अभिसन्धाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत्।
इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम्॥ श्लोक 12
परन्तु हे अर्जुन! केवल दम्भाचरण के लिए अथवा फल को भी दृष्टि में रखकर जो यज्ञ किया जाता है, उस यज्ञ को तू राजस जान ।
व्यवहारिक अर्थ : केवल दम्भाचरण या अपने अहंकार के लिए अथवा फल को भी दृष्टि में रखकर जो यज्ञ किया जाता है, उस यज्ञ को तू राजस जान । यज्ञ वो समस्त क्रियाएं जिनसे फल उत्पन्न होने की सम्भावनाए होती है ।
मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते॥ श्लोक 16
मन की प्रसन्नता, शान्तभाव, भगवच्चिन्तन करने का स्वभाव, मन का निग्रह और अन्तःकरण के भावों की भलीभाँति पवित्रता, इस प्रकार यह मन सम्बन्धी तप कहा जाता है ।
व्यवहारिक अर्थ : मन की प्रसन्नता, शांतभाव, भगवत चिंतन करने का स्वभाव, मन का निग्रह और अन्तः करण के भावों या विचारों की भली भांति पवित्रता, इस प्रकार यह मन संबंधी तप कहा जाता है । इस श्लोक ने परमेश्वर ने मन के तप के विषय में बात की है ।
सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत्।
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम्॥ श्लोक 18
जो तप सत्कार, मान और पूजा के लिए तथा अन्य किसी स्वार्थ के लिए भी स्वभाव से या पाखण्ड से किया जाता है, वह अनिश्चित
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में योगेश्वर ने पुनः पाखण्ड का खंडन किया है जो तप सत्कार, मान और पूजा के लिए तथा अन्य किसी स्वार्थ के लिए भी स्वभाव से या पाखण्ड से किया जाता है, वह अनिश्चित एवम क्षणिक फलवाला तप यहाँ राजस कहा गया है । (‘अनिश्चित फलवाला’ उसको कहते हैं कि जिसका फल होने न होने में शंका हो।) एवं क्षणिक फलवाला तप यहाँ राजस कहा गया है ।
मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः।
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम्॥ श्लोक 19
जो तप मूढ़तापूर्वक हठ से, मन, वाणी और शरीर की पीड़ा के सहित अथवा दूसरे का अनिष्ट करने के लिए किया जाता है- वह तप तामस कहा गया है ।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में योगेश्वर समझाया है जो तप मूढतापूर्वक, हठ से, मन, वाणी और शरीर की पीड़ा के सहित अथवा दूसरे का अनिष्ट करने के लिए किया जाता है वह तामस कहा गया है ।
यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः।
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम्॥ श्लोक 21
किन्तु जो दान क्लेशपूर्वक तथा प्रत्युपकार के प्रयोजन से अथवा फल को दृष्टि में रखकर फिर दिया जाता है, वह दान राजस कहा गया है ।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में परमेश्वर ने राजस दान के विषय मे बताया है किंतु जो दान क्लेशपूर्वक तथा प्रत्युपकार के प्रयोजन से अथवा फल को दृष्टि में रखकर फिर दिया जाता है, वह दान राजस कहा गया है । (जैसे प्रायः वर्तमान समय के चन्दे-चिट्ठे आदि में धन दिया जाता है।) प्रत्युपकार (अर्थात् मान बड़ाई, प्रतिष्ठा और स्वर्गादि की प्राप्ति के लिए अथवा रोगादि की निवृत्ति के लिए।)
अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते।
असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम्॥ श्लोक 22
जो दान बिना सत्कार के अथवा तिरस्कारपूर्वक अयोग्य देश-काल में और कुपात्र के प्रति दिया जाता है, वह दान तामस कहा गया है ।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में परमेश्वर ने तामस दान के विषय में बताया है जो दान बिना सत्कार के अथवा तिरस्कारपूर्वक अयोग्य देश-काल में और कुपात्र के प्रति दिया जाता है, वह दान तामस दान कहा जाता है । The Geeta Lesson 17
Bhawani Singh
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