यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्याग करने के योग्य नहीं है, बल्कि वह तो अवश्य कर्तव्य है, क्योंकि यज्ञ, दान और तप -ये तीनों ही कर्म बुद्धिमान पुरुषों पवित्र करने वाले हैं ।
व्यवहारिक अर्थ :श्लोक में योगेश्वर ने यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्याग करने के योग्य नहीं है, बल्कि बुद्दिमान पुरुषों को करना चाहिए इसके विषय में बताया है ।(वह मनुष्य बुद्धिमान है, जो फल और आसक्ति को त्याग कर केवल कर्म करता है अपनी सफलता के लिए।
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एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च।
कर्तव्यानीति में पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम्॥ श्लोक 6
इसलिए हे पार्थ! इन यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों को तथा और भी सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मों को आसक्ति और फलों का त्याग करके अवश्य करना चाहिए, यह मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम मत है ।
व्यवहारिक अर्थ : इस व्यवहारिक श्लोक में ईश्वर ने अपना मत स्पष्ठ किया है । यज्ञ, दान और तपरूप कर्मो को तथा और भी सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मो को आसत्ती और फलों का त्याग करके अवश्य करना चाहिए, यह मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम मत है इस श्लोक में स्वयं नारायण श्री कृष्ण ने हम मानवो को कर्म की अनिवार्यता बताई है ।
दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत्।
स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत्॥ श्लोक 8
जो कुछ कर्म है वह सब दुःखरूप ही है- ऐसा समझकर यदि कोई शारीरिक क्लेश के भय से कर्तव्य-कर्मों का त्याग कर दे, तो वह ऐसा राजस त्याग करके त्याग के फल को किसी प्रकार भी नहीं पाता ।
व्यवहारिक अर्थ : अगर कोई शरीरिक क्लेश के भय से कर्तव्य कर्मों का त्याग कर दे, ऐसा करके भी कोई त्याग के फल को किसी प्रकार भी नही पाता त्याग के विषय मे योगेश्वर ने स्पष्ट किया है ।
जो मनुष्य अकुशल कर्म से तो द्वेष नहीं करता और कुशल कर्म में आसक्त नहीं होता- वह शुद्ध सत्त्वगुण से युक्त पुरुष संशयरहित, बुद्धिमान और सच्चा त्यागी है ।
व्यवहारिक अर्थ : व्यहवहारिक श्लोक जो मनुष्य अकुशल कर्म या ऐसा कर्म जिसमे कुशलता की आवश्यकता ना हो ऐसे कर्म से द्वेष नही करता और कुशल कर्म जिसको करने में कोई विशेष योग्यता या कुशलता की आवश्यकता लगती हो उनमे आसक्त या लगाव न रखता हो वह शुद्ध सत्वगुण से युक्त पुरुष संशयरहित, बुद्दिमान और सच्चा त्यागी है ।
न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः।
यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते॥ श्लोक 11
क्योंकि शरीरधारी किसी भी मनुष्य द्वारा सम्पूर्णता से सब कर्मों का त्याग किया जाना शक्य नहीं है, इसलिए जो कर्मफल त्यागी है, वही त्यागी है- यह कहा जाता है।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में भगवान ने बताया है कि जो भी शरीरधारी मनुष्य है उसके लिए पूरी तरह से सब कर्मों का त्याग सम्भव नही है । इसलिए जो कर्मफल का त्यागी है, वही त्यागी है ।
तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः॥ श्लोक 16
परन्तु ऐसा होने पर भी जो मनुष्य अशुद्ध बुद्धि होने के कारण उस विषय में यानी कर्मों के होने में केवल शुद्ध स्वरूप आत्मा को कर्ता समझता है, वह मलीन बुद्धि वाला अज्ञानी यथार्थ नहीं समझता ।
व्यवहारिक अर्थ : श्लोक में भगवान अशुद्ध बुद्धि के विषय में बता रहे है जो मनुष्य अशुद्ध बुद्धि होने के कारण उस विषय में यानी कर्मों के होने में केवल शुद्ध स्वरूप आत्मा को करता समझता है, वह मलीन बुद्धि वाला अज्ञानी यथार्थ नही समझता (सत्संग और शास्त्र के अभ्यास से तथा भगवदर्थ कर्म और उपासना के करने से मनुष्य की बुद्धि शुद्ध होती है, इसलिए जो उपर्युक्त साधनों से रहित है, उसकी बुद्धि अशुद्ध है, ऐसा समझना चाहिए।) The Geeta Lesson 18
जो कर्म शास्त्रविधि से नियत किया हुआ और कर्तापन के अभिमान से रहित हो तथा फल न चाहने वाले पुरुष द्वारा बिना राग-द्वेष के किया गया हो- वह सात्त्विक कहा जाता है ।
व्यवहारिक अर्थ : श्लोक में केशव सात्विक कर्म बता रहे है जो कर्म शास्त्र विधि या system से किया जाता है और करने वाले को उसका घमंड ना हो और फल ना चाहने वाले पुरुष द्वारा बिना राग द्वेष के किया गया हो वह सात्विक कर्म या अवश्य ही शुभ फल देने वाला कर्म हो ।
यत्तु कामेप्सुना कर्म साहङ्कारेण वा पुनः।
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम्॥ श्लोक 24
परन्तु जो कर्म बहुत परिश्रम से युक्त होता है तथा भोगों को चाहने वाले पुरुष द्वारा या अहंकारयुक्त पुरुष द्वारा किया जाता है, वह कर्म राजस कहा गया है ।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में माधव ने राजस कर्म के विषय में समझाया है जो कर्म बहुत ही परिश्रम से हो तथा भोगों की इक्छा के साथ मनुष्य करे तथा अहंकार भी उनमे शामिल हो तो वह कर्म राजस होगा ।
अनुबन्धं क्षयं हिंसामनवेक्ष्य च पौरुषम्।
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते॥ श्लोक 25
जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और सामर्थ्य को न विचारकर केवल अज्ञान से आरंभ किया जाता है, वह तामस कहा जाता है ।
व्यवहारिक अर्थ : इसमें परमेश्वर ने तामस कर्म या नुकसान पहुचाने वाले कर्म के विषय में बताया है जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और सामर्थ्य को न विचारकर केवल अज्ञान से आरम्भ किया जाता है, वह तामस कर्म या नुकसान पहुचाने वाला कर्म होता है ।
जो कर्ता संगरहित, अहंकार के वचन न बोलने वाला, धैर्य और उत्साह से युक्त तथा कार्य के सिद्ध होने और न होने में हर्ष -शोकादि विकारों से रहित है- वह सात्त्विक कहा जाता है ।
व्यवहारिक अर्थ : श्लोक में परमेश्वर सात्विक कर्ता या सात्विक कर्म करने वालों के लक्षण बता रहे है जो कर्ता अहंकार के वचन न बोलने वाला, धैर्य और उत्साह से युक्त तथा कार्य के सिद्ध होने और न होने में हर्ष शोकआदि विकारों रहित याने की कोई काम होने पर ना ज्यादा खुशी हो और कोई काम ना होने पर कोई गम ना हो वह सात्त्विक कर्म करने वाला होगा ।
रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः।
हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः॥ श्लोक 27
जो कर्ता आसक्ति से युक्त कर्मों के फल को चाहने वाला और लोभी है तथा दूसरों को कष्ट देने के स्वभाववाला, अशुद्धाचारी और हर्ष-शोक से लिप्त है वह राजस कहा गया है ।
व्यवहारिक अर्थ : श्लोक में माधव राजस कर्म करने वालों के विषय में समझा रहे है जो कर्ता या काम करने वाला आसत्ती से युक्त जिसको ज्यादा लगाव हो कर्मों के फल को चाहने वाला और लोभी है तथा दूसरों को कष्ट देने के स्वभाववाला, अशुद्धाचारी और हर्ष शोक से लिप्त है वह राजस कहा गया है ।
आयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठोनैष्कृतिकोऽलसः।
विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते॥ श्लोक 28
जो कर्ता अयुक्त, शिक्षा से रहित घमंडी, धूर्त और दूसरों की जीविका का नाश करने वाला तथा शोक करने वाला, आलसी और दीर्घसूत्री है वह तामस कहा जाता है ।
व्यवहारिक अर्थ : इस व्यवहारिक श्लोक में परमेश्वर तामसी कर्म करने वालों के लक्षण बता रहें है जो कर्ता अयुक्त या काम की योग्यता ना रखने वाला शिक्षा से रहित या अशिक्षित व घमंडी, धूर्त और दूसरों की जीविका या रोजगार का नाश करने वाला तथा शोक करने वाला, अलसी और दिर्घ सूत्री है वह तामस कहा जाता है । (दीर्घसूत्री उसको कहा जाता है कि जो थोड़े काल में होने लायक साधारण कार्य को भी फिर कर लेंगे, ऐसी आशा से बहुत काल तक नहीं पूरा करता। ) The Geeta Lesson 18
प्रवत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये।
बन्धं मोक्षं च या वेति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी॥ श्लोक 30
हे पार्थ ! जो बुद्धि प्रवृत्तिमार्ग और निवृत्ति मार्ग को , कर्तव्य और अकर्तव्य को, भय और अभय को तथा बंधन और मोक्ष को यथार्थ जानती है- वह बुद्धि सात्त्विकी है ।
व्यवहारिक अर्थ : श्लोक में भगवान सात्विक बुद्धि के विषय मे बता रहे है (गृहस्थ में रहते हुए फल और आसक्ति को त्यागकर भगवदर्पण बुद्धि से केवल लोकशिक्षा के लिए राजा जनक की भाँति बरतने का नाम ‘प्रवृत्तिमार्ग’ है।) (देहाभिमान को त्यागकर केवल सच्चिदानंदघन परमात्मा में एकीभाव स्थित हुए श्री शुकदेवजी और सनकादिकों की भाँति संसार से उपराम होकर विचरने का नाम ‘निवृत्तिमार्ग’ है।)
हे अर्जुन! जो तमोगुण से घिरी हुई बुद्धि अधर्म को भी ‘यह धर्म है’ ऐसा मान लेती है तथा इसी प्रकार अन्य संपूर्ण पदार्थों को भी विपरीत मान लेती है, वह बुद्धि तामसी है ।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में परमेश्वर तमोगुणी बुद्धि (गुस्से से भरा दिमाग) के विषय में बता रहे है जो बुद्धि तमोगुण या क्रोध से घिरी है वह अधर्म को भी धर्म मान लेती है, इसी प्रकार अन्य सभी अच्छी चीजों को विपरीत मान लेती है वह बुद्धि तामसी है ।
यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च ।
न विमुञ्चति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी॥ श्लोक 35
हे पार्थ! दुष्ट बुद्धिवाला मनुष्य जिस धारण शक्ति के द्वारा निद्रा, भय, चिंता और दु:ख को तथा उन्मत्तता को भी नहीं छोड़ता अर्थात धारण किए रहता है- वह धारण शक्ति तामसी है ।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में धारण शक्ति या किसी भावना या विचार को धारण करने की शक्ति के विषय में समझा रहे है दुष्ट बुद्धिवाला मनुष्य जिस धारणा शक्ति के द्वारा निद्रा, भय, चिंता और दुःख को तथा उन्मत्ता को भी नहीं छोड़ता अर्थात धारण किए रहता है वह धारण शक्ति तामसी है । The Geeta Lesson 18
विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम्॥ श्लोक 38
जो सुख विषय और इंद्रियों के संयोग से होता है, वह पहले- भोगकाल में अमृत के तुल्य प्रतीत होने पर भी परिणाम में विष के तुल्य है इसलिए वह सुख राजस कहा गया है ।
व्यवहारिक अर्थ : श्लोक में परमेश्वर ने जो सुख विषय और इंद्रियों के संयोग से होता है, वह पहले भोगकाल में अमृत के तुल्य प्रतीत होने पर भी परिणाम में विष के तुल्य है इसलिए वह सुख राजस कहा गया है । साधरण भाषा में कहे तो जिन कामो को करने में शरू में अमृत तुल्य सुख और परिणाम विष जैसा भयंकर हो वो सुख राजस होगा ।
(बल, वीर्य, बुद्धि, धन, उत्साह और परलोक का नाश होने से विषय और इंद्रियों के संयोग से होने वाले सुख को ‘परिणाम में विष के तुल्य’ कहा है)
यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः।
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम्॥ श्लोक 39
जो सुख भोगकाल में तथा परिणाम में भी आत्मा को मोहित करने वाला है, वह निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न सुख तामस कहा गया है ।
व्यवहारिक अर्थ : इसमें तामस सुख के विषय में समझाया गया है, जो सुख भोगकाल में तथा परिणाम में भी आत्मा को मोहित करने वाला है, ,वह निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न सुख तामस कहा गया है।
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः॥ श्लोक 48
अतएव हे कुन्तीपुत्र! दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्म को नहीं त्यागना चाहिए, क्योंकि धूएँ से अग्नि की भाँति सभी कर्म किसी-न-किसी दोष से युक्त हैं ।
व्यवहारिक अर्थ : अत्यंत व्यवहारिक श्लोक इसमें परमेश्वर समझा रहे है अर्जुन को की सहज कर्म को नही त्यागना चाहिए चाहे उनमे दोष ही क्यो ना हो क्योकि धुंए से अग्नि की भांति सभी कर्म किसी न किसी दोष से युक्त है । (प्रकृति के अनुसार शास्त्र विधि से नियत किए हुए वर्णाश्रम के धर्म और सामान्य धर्मरूप स्वाभाविक कर्म हैं उनको ही यहाँ स्वधर्म, सहज कर्म, स्वकर्म, नियत कर्म, स्वभावज कर्म, स्वभावनियत कर्म इत्यादि नामों से कहा है) The Geeta Lesson 18
सर्वत्र आसक्तिरहित बुद्धिवाला, स्पृहारहित और जीते हुए अंतःकरण वाला पुरुष सांख्ययोग के द्वारा उस परम नैष्कर्म्यसिद्धि को प्राप्त होता है ।
व्यवहारिक अर्थ : श्लोक में प्रभु सफलता का रहस्य बता रहे है सर्वत्र असत्तिरहित बुद्धिवाला या जिसके दिमाग मे अज्ञान जनित मोह व्यर्थ के लगाव ना हो तो जीते हुए अन्तः करण या जिसका दिमाग उसके वश में हो वाला पुरुष सांख्ययोग के द्वारा उस परम नैष्कर्म्य सिद्धि, सफलता चाहने वाला सफलता प्राप्त कर सकता है
उपर्युक्त प्रकार से मुझमें चित्तवाला होकर तू मेरी कृपा से समस्त संकटों को अनायास ही पार कर जाएगा और यदि अहंकार के कारण मेरे वचनों को न सुनेगा तो नष्ट हो जाएगा अर्थात परमार्थ से भ्रष्ट हो जाएगा ।
व्यवहारिक अर्थ : इस व्यवहारिक श्लोक में परमेश्वर बता रहे है उनके इस दिव्य विज्ञान को ना मानने का परिणाम उपयुक्त प्रकार से मुझमें चित्तवाला होकर तू मेरी कृपा से समस्त संकटो को अनायास ही पार कर जाएगा और यदि अहंकार के कारण मेरे वचनों को न सुनेगा तो नष्ट हो जाएगा अर्थात परमार्थ से भृष्ट हो जाएगा ।
इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु॥ श्लोक 63
इस प्रकार यह गोपनीय से भी अति गोपनीय ज्ञान मैंने तुमसे कह दिया। अब तू इस रहस्ययुक्त ज्ञान को पूर्णतया भलीभाँति विचार कर, जैसे चाहता है वैसे ही कर । The Geeta Lesson 18
व्यवहारिक अर्थ : महत्वपूर्ण श्लोक इस श्लोक में परमेश्वर ने इस गीता ज्ञान को गोपनीय से भी अति गोपनीय ज्ञान कहा है और ये भी कहा है तू इस रहस्ययुक्त ज्ञान को पूर्णतया भलीभांति विचार कर, जैसा चाहता है वैसे ही कर
इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन।
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति॥ श्लोक 67
तुझे यह गीता रूप रहस्यमय उपदेश किसी भी काल में न तो तपरहित मनुष्य से कहना चाहिए, न भक्ति–रहित से और न बिना सुनने की इच्छा वाले से ही कहना चाहिए तथा जो मुझमें दोषदृष्टि रखता है, उससे तो कभी भी नहीं कहना चाहिए ।
व्यवहारिक अर्थ : महत्वपूर्ण श्लोक इस श्लोक में प्रभु गोविंद समझा रहे है की गीता ज्ञान का उपदेश किसे देना है किसे नही न तो यह तपरहित मनुष्य से कहना चाहिए न भक्ति रहित से और न बिना सुनने की इक्छा वाले से ही कहना चाहिए (वेद, शास्त्र और परमेश्वर तथा महात्मा और गुरुजनों में श्रद्धा, प्रेम और पूज्य भाव का नाम ‘भक्ति’ है।)
जो पुरुष मुझमें परम प्रेम करके इस परम रहस्ययुक्त गीताशास्त्र को मेरे भक्तों में कहेगा, वह मुझको ही प्राप्त होगा- इसमें कोई संदेह नहीं है ।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में प्रभु बता रहे है जो उनके इस विज्ञान को जो उनके भक्तों में कहेगा वह मुझको प्राप्त होगा इसमें कोई संदेह नहीं है ।
न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि॥ श्लोक 69
उससे बढ़कर मेरा प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई भी नहीं है तथा पृथ्वीभर में उससे बढ़कर मेरा प्रिय दूसरा कोई भविष्य में होगा भी नहीं ।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में भगवान कह रहे है, जो उनके इस विज्ञान को लोगो को बताएगा वो उनका सबसे प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई भी नहीं है तथा पृथ्वीभर में उससे बढ़कर मेरा प्रिय दूसरा कोई भविष्य में होगा भी नहीं ।
अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः॥ श्लोक 70
जो पुरुष इस धर्ममय हम दोनों के संवाद रूप गीताशास्त्र को पढ़ेगा, उसके द्वारा भी मैं ज्ञानयज्ञ से पूजित होऊँगा- ऐसा मेरा मत है ।
व्यवहारिक अर्थ : जो मानव हम दोनों के संवाद रूप गीताशास्त्र को पढ़ेगा, उसके द्वारा भी में ज्ञानयज्ञ से पूजित होऊंगा ऐसा मेरा मत है । The Geeta Lesson 18
अर्जुन उवाच
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वप्रसादान्मयाच्युत।
स्थितोऽस्मि गतसंदेहः करिष्ये वचनं तव॥ श्लोक 73
अर्जुन बोले- हे अच्युत! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया और मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है, अब मैं संशयरहित होकर स्थिर हूँ, अतः आपकी आज्ञा का पालन करूँगा ।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में आप इस विज्ञान का असर भी देखेगे अर्जुन कहता है आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया और मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है, अब में संशयरहित होकर स्थिर हूँ, अतः आपकी आज्ञा का पालन करूँगा ।
हे राजन! जहाँ योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीव-धनुषधारी अर्जुन है, वहीं पर श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है- ऐसा मेरा मत है ।
व्यवहारिक अर्थ : इस अंतिम श्लोक में बताया गया है जहाँ योगेश्वर श्री कृष्ण हैं और जहाँ गांडीव धारी अर्जुन है वही पर विजय, विभूति और अचल नीति है ।
ये गीता विज्ञान सदियों से जैसे सूर्य हम सब को बिना धर्म, जाती, समुदाय देखे अपना प्रकाश देते हैं । वैसे ही ये विज्ञान हम सभी मानवों को अपना प्रकाश देते है । कोई भी इस विज्ञान का उपयोग करके कुंठा व अवसाद से बाहर निकल सकता है ।
The Geeta Lesson 18
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्॥ श्लोक 5
यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्याग करने के योग्य नहीं है, बल्कि वह तो अवश्य कर्तव्य है, क्योंकि यज्ञ, दान और तप -ये तीनों ही कर्म बुद्धिमान पुरुषों पवित्र करने वाले हैं ।
व्यवहारिक अर्थ :श्लोक में योगेश्वर ने यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्याग करने के योग्य नहीं है, बल्कि बुद्दिमान पुरुषों को करना चाहिए इसके विषय में बताया है ।(वह मनुष्य बुद्धिमान है, जो फल और आसक्ति को त्याग कर केवल कर्म करता है अपनी सफलता के लिए।
एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च।
कर्तव्यानीति में पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम्॥ श्लोक 6
इसलिए हे पार्थ! इन यज्ञ, दान और तपरूप कर्मों को तथा और भी सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मों को आसक्ति और फलों का त्याग करके अवश्य करना चाहिए, यह मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम मत है ।
व्यवहारिक अर्थ : इस व्यवहारिक श्लोक में ईश्वर ने अपना मत स्पष्ठ किया है । यज्ञ, दान और तपरूप कर्मो को तथा और भी सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मो को आसत्ती और फलों का त्याग करके अवश्य करना चाहिए, यह मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम मत है इस श्लोक में स्वयं नारायण श्री कृष्ण ने हम मानवो को कर्म की अनिवार्यता बताई है ।
दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत्।
स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत्॥ श्लोक 8
जो कुछ कर्म है वह सब दुःखरूप ही है- ऐसा समझकर यदि कोई शारीरिक क्लेश के भय से कर्तव्य-कर्मों का त्याग कर दे, तो वह ऐसा राजस त्याग करके त्याग के फल को किसी प्रकार भी नहीं पाता ।
व्यवहारिक अर्थ : अगर कोई शरीरिक क्लेश के भय से कर्तव्य कर्मों का त्याग कर दे, ऐसा करके भी कोई त्याग के फल को किसी प्रकार भी नही पाता त्याग के विषय मे योगेश्वर ने स्पष्ट किया है ।
न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते।
त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः॥ श्लोक 10
जो मनुष्य अकुशल कर्म से तो द्वेष नहीं करता और कुशल कर्म में आसक्त नहीं होता- वह शुद्ध सत्त्वगुण से युक्त पुरुष संशयरहित, बुद्धिमान और सच्चा त्यागी है ।
व्यवहारिक अर्थ : व्यहवहारिक श्लोक जो मनुष्य अकुशल कर्म या ऐसा कर्म जिसमे कुशलता की आवश्यकता ना हो ऐसे कर्म से द्वेष नही करता और कुशल कर्म जिसको करने में कोई विशेष योग्यता या कुशलता की आवश्यकता लगती हो उनमे आसक्त या लगाव न रखता हो वह शुद्ध सत्वगुण से युक्त पुरुष संशयरहित, बुद्दिमान और सच्चा त्यागी है ।
न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः।
यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते॥ श्लोक 11
क्योंकि शरीरधारी किसी भी मनुष्य द्वारा सम्पूर्णता से सब कर्मों का त्याग किया जाना शक्य नहीं है, इसलिए जो कर्मफल त्यागी है, वही त्यागी है- यह कहा जाता है।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में भगवान ने बताया है कि जो भी शरीरधारी मनुष्य है उसके लिए पूरी तरह से सब कर्मों का त्याग सम्भव नही है । इसलिए जो कर्मफल का त्यागी है, वही त्यागी है ।
तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः॥ श्लोक 16
परन्तु ऐसा होने पर भी जो मनुष्य अशुद्ध बुद्धि होने के कारण उस विषय में यानी कर्मों के होने में केवल शुद्ध स्वरूप आत्मा को कर्ता समझता है, वह मलीन बुद्धि वाला अज्ञानी यथार्थ नहीं समझता ।
व्यवहारिक अर्थ : श्लोक में भगवान अशुद्ध बुद्धि के विषय में बता रहे है जो मनुष्य अशुद्ध बुद्धि होने के कारण उस विषय में यानी कर्मों के होने में केवल शुद्ध स्वरूप आत्मा को करता समझता है, वह मलीन बुद्धि वाला अज्ञानी यथार्थ नही समझता (सत्संग और शास्त्र के अभ्यास से तथा भगवदर्थ कर्म और उपासना के करने से मनुष्य की बुद्धि शुद्ध होती है, इसलिए जो उपर्युक्त साधनों से रहित है, उसकी बुद्धि अशुद्ध है, ऐसा समझना चाहिए।) The Geeta Lesson 18
नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतम ।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते॥ श्लोक 23
जो कर्म शास्त्रविधि से नियत किया हुआ और कर्तापन के अभिमान से रहित हो तथा फल न चाहने वाले पुरुष द्वारा बिना राग-द्वेष के किया गया हो- वह सात्त्विक कहा जाता है ।
व्यवहारिक अर्थ : श्लोक में केशव सात्विक कर्म बता रहे है जो कर्म शास्त्र विधि या system से किया जाता है और करने वाले को उसका घमंड ना हो और फल ना चाहने वाले पुरुष द्वारा बिना राग द्वेष के किया गया हो वह सात्विक कर्म या अवश्य ही शुभ फल देने वाला कर्म हो ।
यत्तु कामेप्सुना कर्म साहङ्कारेण वा पुनः।
क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम्॥ श्लोक 24
परन्तु जो कर्म बहुत परिश्रम से युक्त होता है तथा भोगों को चाहने वाले पुरुष द्वारा या अहंकारयुक्त पुरुष द्वारा किया जाता है, वह कर्म राजस कहा गया है ।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में माधव ने राजस कर्म के विषय में समझाया है जो कर्म बहुत ही परिश्रम से हो तथा भोगों की इक्छा के साथ मनुष्य करे तथा अहंकार भी उनमे शामिल हो तो वह कर्म राजस होगा ।
अनुबन्धं क्षयं हिंसामनवेक्ष्य च पौरुषम्।
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते॥ श्लोक 25
जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और सामर्थ्य को न विचारकर केवल अज्ञान से आरंभ किया जाता है, वह तामस कहा जाता है ।
व्यवहारिक अर्थ : इसमें परमेश्वर ने तामस कर्म या नुकसान पहुचाने वाले कर्म के विषय में बताया है जो कर्म परिणाम, हानि, हिंसा और सामर्थ्य को न विचारकर केवल अज्ञान से आरम्भ किया जाता है, वह तामस कर्म या नुकसान पहुचाने वाला कर्म होता है ।
मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः।
सिद्धयसिद्धयोर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते॥ श्लोक 26
जो कर्ता संगरहित, अहंकार के वचन न बोलने वाला, धैर्य और उत्साह से युक्त तथा कार्य के सिद्ध होने और न होने में हर्ष -शोकादि विकारों से रहित है- वह सात्त्विक कहा जाता है ।
व्यवहारिक अर्थ : श्लोक में परमेश्वर सात्विक कर्ता या सात्विक कर्म करने वालों के लक्षण बता रहे है जो कर्ता अहंकार के वचन न बोलने वाला, धैर्य और उत्साह से युक्त तथा कार्य के सिद्ध होने और न होने में हर्ष शोकआदि विकारों रहित याने की कोई काम होने पर ना ज्यादा खुशी हो और कोई काम ना होने पर कोई गम ना हो वह सात्त्विक कर्म करने वाला होगा ।
रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः।
हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः॥ श्लोक 27
जो कर्ता आसक्ति से युक्त कर्मों के फल को चाहने वाला और लोभी है तथा दूसरों को कष्ट देने के स्वभाववाला, अशुद्धाचारी और हर्ष-शोक से लिप्त है वह राजस कहा गया है ।
व्यवहारिक अर्थ : श्लोक में माधव राजस कर्म करने वालों के विषय में समझा रहे है जो कर्ता या काम करने वाला आसत्ती से युक्त जिसको ज्यादा लगाव हो कर्मों के फल को चाहने वाला और लोभी है तथा दूसरों को कष्ट देने के स्वभाववाला, अशुद्धाचारी और हर्ष शोक से लिप्त है वह राजस कहा गया है ।
आयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठोनैष्कृतिकोऽलसः।
विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते॥ श्लोक 28
जो कर्ता अयुक्त, शिक्षा से रहित घमंडी, धूर्त और दूसरों की जीविका का नाश करने वाला तथा शोक करने वाला, आलसी और दीर्घसूत्री है वह तामस कहा जाता है ।
व्यवहारिक अर्थ : इस व्यवहारिक श्लोक में परमेश्वर तामसी कर्म करने वालों के लक्षण बता रहें है जो कर्ता अयुक्त या काम की योग्यता ना रखने वाला शिक्षा से रहित या अशिक्षित व घमंडी, धूर्त और दूसरों की जीविका या रोजगार का नाश करने वाला तथा शोक करने वाला, अलसी और दिर्घ सूत्री है वह तामस कहा जाता है । (दीर्घसूत्री उसको कहा जाता है कि जो थोड़े काल में होने लायक साधारण कार्य को भी फिर कर लेंगे, ऐसी आशा से बहुत काल तक नहीं पूरा करता। ) The Geeta Lesson 18
प्रवत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये।
बन्धं मोक्षं च या वेति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी॥ श्लोक 30
हे पार्थ ! जो बुद्धि प्रवृत्तिमार्ग और निवृत्ति मार्ग को , कर्तव्य और अकर्तव्य को, भय और अभय को तथा बंधन और मोक्ष को यथार्थ जानती है- वह बुद्धि सात्त्विकी है ।
व्यवहारिक अर्थ : श्लोक में भगवान सात्विक बुद्धि के विषय मे बता रहे है (गृहस्थ में रहते हुए फल और आसक्ति को त्यागकर भगवदर्पण बुद्धि से केवल लोकशिक्षा के लिए राजा जनक की भाँति बरतने का नाम ‘प्रवृत्तिमार्ग’ है।) (देहाभिमान को त्यागकर केवल सच्चिदानंदघन परमात्मा में एकीभाव स्थित हुए श्री शुकदेवजी और सनकादिकों की भाँति संसार से उपराम होकर विचरने का नाम ‘निवृत्तिमार्ग’ है।)
अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता।
सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी॥ श्लोक 32
हे अर्जुन! जो तमोगुण से घिरी हुई बुद्धि अधर्म को भी ‘यह धर्म है’ ऐसा मान लेती है तथा इसी प्रकार अन्य संपूर्ण पदार्थों को भी विपरीत मान लेती है, वह बुद्धि तामसी है ।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में परमेश्वर तमोगुणी बुद्धि (गुस्से से भरा दिमाग) के विषय में बता रहे है जो बुद्धि तमोगुण या क्रोध से घिरी है वह अधर्म को भी धर्म मान लेती है, इसी प्रकार अन्य सभी अच्छी चीजों को विपरीत मान लेती है वह बुद्धि तामसी है ।
यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च ।
न विमुञ्चति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी॥ श्लोक 35
हे पार्थ! दुष्ट बुद्धिवाला मनुष्य जिस धारण शक्ति के द्वारा निद्रा, भय, चिंता और दु:ख को तथा उन्मत्तता को भी नहीं छोड़ता अर्थात धारण किए रहता है- वह धारण शक्ति तामसी है ।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में धारण शक्ति या किसी भावना या विचार को धारण करने की शक्ति के विषय में समझा रहे है दुष्ट बुद्धिवाला मनुष्य जिस धारणा शक्ति के द्वारा निद्रा, भय, चिंता और दुःख को तथा उन्मत्ता को भी नहीं छोड़ता अर्थात धारण किए रहता है वह धारण शक्ति तामसी है । The Geeta Lesson 18
विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम्॥ श्लोक 38
जो सुख विषय और इंद्रियों के संयोग से होता है, वह पहले- भोगकाल में अमृत के तुल्य प्रतीत होने पर भी परिणाम में विष के तुल्य है इसलिए वह सुख राजस कहा गया है ।
व्यवहारिक अर्थ : श्लोक में परमेश्वर ने जो सुख विषय और इंद्रियों के संयोग से होता है, वह पहले भोगकाल में अमृत के तुल्य प्रतीत होने पर भी परिणाम में विष के तुल्य है इसलिए वह सुख राजस कहा गया है । साधरण भाषा में कहे तो जिन कामो को करने में शरू में अमृत तुल्य सुख और परिणाम विष जैसा भयंकर हो वो सुख राजस होगा ।
(बल, वीर्य, बुद्धि, धन, उत्साह और परलोक का नाश होने से विषय और इंद्रियों के संयोग से होने वाले सुख को ‘परिणाम में विष के तुल्य’ कहा है)
यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः।
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम्॥ श्लोक 39
जो सुख भोगकाल में तथा परिणाम में भी आत्मा को मोहित करने वाला है, वह निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न सुख तामस कहा गया है ।
व्यवहारिक अर्थ : इसमें तामस सुख के विषय में समझाया गया है, जो सुख भोगकाल में तथा परिणाम में भी आत्मा को मोहित करने वाला है, ,वह निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न सुख तामस कहा गया है।
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः॥ श्लोक 48
अतएव हे कुन्तीपुत्र! दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्म को नहीं त्यागना चाहिए, क्योंकि धूएँ से अग्नि की भाँति सभी कर्म किसी-न-किसी दोष से युक्त हैं ।
व्यवहारिक अर्थ : अत्यंत व्यवहारिक श्लोक इसमें परमेश्वर समझा रहे है अर्जुन को की सहज कर्म को नही त्यागना चाहिए चाहे उनमे दोष ही क्यो ना हो क्योकि धुंए से अग्नि की भांति सभी कर्म किसी न किसी दोष से युक्त है । (प्रकृति के अनुसार शास्त्र विधि से नियत किए हुए वर्णाश्रम के धर्म और सामान्य धर्मरूप स्वाभाविक कर्म हैं उनको ही यहाँ स्वधर्म, सहज कर्म, स्वकर्म, नियत कर्म, स्वभावज कर्म, स्वभावनियत कर्म इत्यादि नामों से कहा है) The Geeta Lesson 18
असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः।
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां सन्न्यासेनाधिगच्छति॥ श्लोक 49
सर्वत्र आसक्तिरहित बुद्धिवाला, स्पृहारहित और जीते हुए अंतःकरण वाला पुरुष सांख्ययोग के द्वारा उस परम नैष्कर्म्यसिद्धि को प्राप्त होता है ।
व्यवहारिक अर्थ : श्लोक में प्रभु सफलता का रहस्य बता रहे है सर्वत्र असत्तिरहित बुद्धिवाला या जिसके दिमाग मे अज्ञान जनित मोह व्यर्थ के लगाव ना हो तो जीते हुए अन्तः करण या जिसका दिमाग उसके वश में हो वाला पुरुष सांख्ययोग के द्वारा उस परम नैष्कर्म्य सिद्धि, सफलता चाहने वाला सफलता प्राप्त कर सकता है
मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्वमहाङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि॥श्लोक 58
उपर्युक्त प्रकार से मुझमें चित्तवाला होकर तू मेरी कृपा से समस्त संकटों को अनायास ही पार कर जाएगा और यदि अहंकार के कारण मेरे वचनों को न सुनेगा तो नष्ट हो जाएगा अर्थात परमार्थ से भ्रष्ट हो जाएगा ।
व्यवहारिक अर्थ : इस व्यवहारिक श्लोक में परमेश्वर बता रहे है उनके इस दिव्य विज्ञान को ना मानने का परिणाम उपयुक्त प्रकार से मुझमें चित्तवाला होकर तू मेरी कृपा से समस्त संकटो को अनायास ही पार कर जाएगा और यदि अहंकार के कारण मेरे वचनों को न सुनेगा तो नष्ट हो जाएगा अर्थात परमार्थ से भृष्ट हो जाएगा ।
इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु॥ श्लोक 63
इस प्रकार यह गोपनीय से भी अति गोपनीय ज्ञान मैंने तुमसे कह दिया। अब तू इस रहस्ययुक्त ज्ञान को पूर्णतया भलीभाँति विचार कर, जैसे चाहता है वैसे ही कर । The Geeta Lesson 18
व्यवहारिक अर्थ : महत्वपूर्ण श्लोक इस श्लोक में परमेश्वर ने इस गीता ज्ञान को गोपनीय से भी अति गोपनीय ज्ञान कहा है और ये भी कहा है तू इस रहस्ययुक्त ज्ञान को पूर्णतया भलीभांति विचार कर, जैसा चाहता है वैसे ही कर
इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन।
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति॥ श्लोक 67
तुझे यह गीता रूप रहस्यमय उपदेश किसी भी काल में न तो तपरहित मनुष्य से कहना चाहिए, न भक्ति–रहित से और न बिना सुनने की इच्छा वाले से ही कहना चाहिए तथा जो मुझमें दोषदृष्टि रखता है, उससे तो कभी भी नहीं कहना चाहिए ।
व्यवहारिक अर्थ : महत्वपूर्ण श्लोक इस श्लोक में प्रभु गोविंद समझा रहे है की गीता ज्ञान का उपदेश किसे देना है किसे नही न तो यह तपरहित मनुष्य से कहना चाहिए न भक्ति रहित से और न बिना सुनने की इक्छा वाले से ही कहना चाहिए (वेद, शास्त्र और परमेश्वर तथा महात्मा और गुरुजनों में श्रद्धा, प्रेम और पूज्य भाव का नाम ‘भक्ति’ है।)
य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति।
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः॥ श्लोक 68
जो पुरुष मुझमें परम प्रेम करके इस परम रहस्ययुक्त गीताशास्त्र को मेरे भक्तों में कहेगा, वह मुझको ही प्राप्त होगा- इसमें कोई संदेह नहीं है ।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में प्रभु बता रहे है जो उनके इस विज्ञान को जो उनके भक्तों में कहेगा वह मुझको प्राप्त होगा इसमें कोई संदेह नहीं है ।
न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः।
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि॥ श्लोक 69
उससे बढ़कर मेरा प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई भी नहीं है तथा पृथ्वीभर में उससे बढ़कर मेरा प्रिय दूसरा कोई भविष्य में होगा भी नहीं ।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में भगवान कह रहे है, जो उनके इस विज्ञान को लोगो को बताएगा वो उनका सबसे प्रिय कार्य करने वाला मनुष्यों में कोई भी नहीं है तथा पृथ्वीभर में उससे बढ़कर मेरा प्रिय दूसरा कोई भविष्य में होगा भी नहीं ।
अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः॥ श्लोक 70
जो पुरुष इस धर्ममय हम दोनों के संवाद रूप गीताशास्त्र को पढ़ेगा, उसके द्वारा भी मैं ज्ञानयज्ञ से पूजित होऊँगा- ऐसा मेरा मत है ।
व्यवहारिक अर्थ : जो मानव हम दोनों के संवाद रूप गीताशास्त्र को पढ़ेगा, उसके द्वारा भी में ज्ञानयज्ञ से पूजित होऊंगा ऐसा मेरा मत है । The Geeta Lesson 18
अर्जुन उवाच
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वप्रसादान्मयाच्युत।
स्थितोऽस्मि गतसंदेहः करिष्ये वचनं तव॥ श्लोक 73
अर्जुन बोले- हे अच्युत! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया और मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है, अब मैं संशयरहित होकर स्थिर हूँ, अतः आपकी आज्ञा का पालन करूँगा ।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में आप इस विज्ञान का असर भी देखेगे अर्जुन कहता है आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया और मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है, अब में संशयरहित होकर स्थिर हूँ, अतः आपकी आज्ञा का पालन करूँगा ।
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥ श्लोक 78
हे राजन! जहाँ योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीव-धनुषधारी अर्जुन है, वहीं पर श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है- ऐसा मेरा मत है ।
व्यवहारिक अर्थ : इस अंतिम श्लोक में बताया गया है जहाँ योगेश्वर श्री कृष्ण हैं और जहाँ गांडीव धारी अर्जुन है वही पर विजय, विभूति और अचल नीति है ।
ये गीता विज्ञान सदियों से जैसे सूर्य हम सब को बिना धर्म, जाती, समुदाय देखे अपना प्रकाश देते हैं । वैसे ही ये विज्ञान हम सभी मानवों को अपना प्रकाश देते है । कोई भी इस विज्ञान का उपयोग करके कुंठा व अवसाद से बाहर निकल सकता है ।
श्री कृष्णम शरणं ममः, अभ्यं कृष्णा
The Geeta Lesson 18
Bhawani Singh
Young-Energetic Person, Animation Creator, Owner Of माँ शक्ति Creation-Graphics/3D/Web Design Services