The Geeta Lesson 4 to 5
- अध्याय 4 : दिव्यज्ञान का व्यवहारिक ज्ञान
निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः।
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्॥ श्लोक 21
जिसका अंतःकरण और इन्द्रियों सहित शरीर जीता हुआ है और जिसने समस्त भोगों की सामग्री का परित्याग कर दिया है, ऐसा आशारहित पुरुष केवल शरीर-संबंधी कर्म करता हुआ भी पापों को नहीं प्राप्त होता ।
व्यवहारिक अर्थ : महत्वपूर्ण व्यवहारिक श्लोक जिसका अंतः करण और इंद्रियों सहित शरीर जीता हुआ है जिसने समस्त भोगों की सामग्री का परित्याग कर दिया है, ऐसा अशारहित पुरुष केवल शरीर-सम्बन्धी कर्म करता हुआ पापो को प्राप्त नही होता श्लोक का अर्थ कांच की तरह ही व्यवहारिक व पारदर्शी है ।
श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप।
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते॥ श्लोक 33
हे परंतप अर्जुन! द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञान यज्ञ अत्यन्त श्रेष्ठ है तथा यावन्मात्र सम्पूर्ण कर्म ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं ।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में भगवान ज्ञान यज्ञ या ज्ञान प्राप्ति के लिए किए गए परिश्रम को अन्य किसी भी यज्ञ से श्रेष्ठ बता रहे है । सारे कर्म ज्ञान में समाप्त हो जाते है ।
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः॥ श्लोक 34
उस ज्ञान को तू तत्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ, उनको भलीभाँति दण्डवत् प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्म तत्व को भलीभाँति जानने वाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्वज्ञान का उपदेश करेंगे ।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में योगेश्वर गुरुजनों के प्रति व्हवहार और उनके महत्व की शिक्षा दे रहे है उन्हें दण्डवत प्रणाम करने से और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्मा तत्व को भलीभाँति जानने वाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्वज्ञान का उपदेश देंगे ।
अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि॥ श्लोक 36
यदि तू अन्य सब पापियों से भी अधिक पाप करने वाला है, तो भी तू ज्ञान रूप नौका द्वारा निःसंदेह सम्पूर्ण पाप-समुद्र से भलीभाँति तर जाएगा ।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में प्रभु कृष्ण कह रहे है, की अगर तू सब पापियों से अधिक पाप करने वाला भी हो तो भी तू ज्ञान रूप नाव द्वारा नि:सन्देह सम्पूर्ण पाप समुद्र से भलीभांति तर जाएगा । श्लोक में भगवान ने ज्ञान के महत्व को प्रतिपादित किया है
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा॥ श्लोक 37
क्योंकि हे अर्जुन! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनों को भस्ममय कर देता है, वैसे ही ज्ञानरूप अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्ममय कर देता है।
व्यवहारिक अर्थ :ज्ञान की महत्वता पुनः प्रतिपादित करते हुए भगवान कहते है जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनों को भस्ममय कर देता है, वैसे ही ज्ञानरूप अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्ममय कर देता है । ज्ञान की शक्ति बताई है प्रभु ने The Geeta Lesson 4 to 5
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति॥ श्लोक 38
इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसंदेह कुछ भी नहीं है। उस ज्ञान को कितने ही काल से कर्मयोग द्वारा शुद्धान्तःकरण हुआ मनुष्य अपने-आप ही आत्मा में पा लेता है ।
व्यवहारिक अर्थ : ज्ञान को भगवान ने संसार मे सबसे ज्यादा पवित्र करने वाला कहा है और उस ज्ञान को मनुष्य कितने ही काल से कर्मयोग द्वारा शुद्धान्त: करण करता हुआ मनुष्य अपने आप ही आत्मा में पा लेता है । इस श्लोक में भगवान ज्ञान की महत्वता और शुद्धान्: करण या साफ मन कि बात कही है जो व्यवहारिक है ।
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्धवा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥ श्लोक 39
जितेन्द्रिय, साधनपरायण और श्रद्धावान मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होता है तथा ज्ञान को प्राप्त होकर वह बिना विलम्ब के- तत्काल ही भगवत्प्राप्तिरूप परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है ।
व्यवहारिक अर्थ : भगवान इस श्लोक में बता रहे है ज्ञान किसे प्राप्त होता है जितेंद्रिय, साधनपरायण और श्रद्धावान मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होता है तथा ज्ञान को प्राप्त होकर तत्काल ही भगवत्प्राप्तिरूप परम शांति या सफलता को प्राप्त हो जाता है आप जानते है सफलता प्राप्ति में ज्ञान का महत्व
अज्ञश्चश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः॥ श्लोक 40
विवेकहीन और श्रद्धारहित संशययुक्त मनुष्य परमार्थ से अवश्य भ्रष्ट हो जाता है। ऐसे संशययुक्त मनुष्य के लिए न यह लोक है, न परलोक है और न सुख ही है ।
व्यवहारिक अर्थ : विवेकहीन और श्रद्धारहित मनुष्य परमार्थ से अवश्य भृष्ट हो जाता है । ऐसे संशययुक्त मनुष्य के लिए न यह लोक है, न परलोक है और न सुख ही है । इस श्लोक का एक एक शब्द पारदर्शी है ।
इस अध्याय में भगवान ने ज्ञान का महत्व बताया है हर सफलता जिस क्षेत्र में हो उसमे ज्ञान का महत्व हम सभी जानते है । The Geeta Lesson 4 to 5
- अध्याय : 5 कृष्णभावना भक्ति कर्म का व्यवहारिक ज्ञान
ज्ञेयः स नित्यसन्न्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते॥ श्लोक 3
हे अर्जुन! जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा करता है, वह कर्मयोगी सदा संन्यासी ही समझने योग्य है क्योंकि राग-द्वेषादि द्वंद्वों से रहित पुरुष सुखपूर्वक संसार बंधन से मुक्त हो जाता है।
व्यवहारिक अर्थ : हे अर्जुन जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है और न ही किसी की आकांक्षा करता है वह कर्मयोगी सदा सन्यासी (अपने कर्म या काम मे रमे रहने वाला ) समझने योग्य है क्योंकि राग-द्वेष द्वन्दों से रहित पुरुष सुखपूर्वक संसार बंधन से मुक्त हो जाता है अगर राग-द्वेष की भावना हो तो ऊर्जा अन्य दिशा में बहती है और लक्ष्य से ध्यान भटकता है ।
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा॥ श्लोक 10
जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके और आसक्ति को त्याग कर कर्म करता है, वह पुरुष जल से कमल के पत्ते की भाँति पाप से लिप्त नहीं होता ।
व्यवहारिक अर्थ : जो मनुष्य अपने सभी कार्य परमात्मा में अपर्ण करके ये आप करवा रहे है इस भाव के साथ कर्म या अपना काम करता है वह जल से कमल के पत्ते की भाँति पाप से लिप्त नहीं होता ।
इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः॥
श्लोक 19 The Geeta Lesson 4 to 5
जिनका मन समभाव में स्थित है, उनके द्वारा इस जीवित अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार जीत लिया गया है क्योंकि सच्चिदानन्दघन परमात्मा निर्दोष और सम है, इससे वे सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही स्थित हैं ।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में योगेश्वर कहते है जिसका मन या दिमाग समभाव में स्थित है अर्थात एक सा उसने जीवित अवस्था मे ही सम्पूर्ण संसार जीत लिया है क्योकि सच्चिदाआंनद परमात्मा निर्दोष और सम है, समभाव ये अवस्था कठिन जरूर है पर सम्भव है ।
न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्।
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः॥ श्लोक 20
जो पुरुष प्रिय को प्राप्त होकर हर्षित नहीं हो और अप्रिय को प्राप्त होकर उद्विग्न न हो, वह स्थिरबुद्धि, संशयरहित, ब्रह्मवेत्ता पुरुष सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा में एकीभाव से नित्य स्थित है ।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में योगेश्वर कह रहे है कि जो प्रिय को पाकर खुश अप्रिय को पाकर दुःखी ना हो वह संशय रहित जिसे कोई शंका ना हो वह स्थिरबुद्धि ब्रह्मवेत्ता या ज्ञानी मनुष्य परमात्मा या अपनी उच्च अवस्था सफलता आदि अन्य में स्थित है
शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः॥ श्लोक 23
जो साधक इस मनुष्य शरीर में, शरीर का नाश होने से पहले-पहले ही काम-क्रोध से उत्पन्न होने वाले वेग को सहन करने में समर्थ हो जाता है, वही पुरुष योगी है और वही सुखी है ।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में योगेश्वर कह रहे है जो साधक, भक्त या इस मार्ग गीता का अनुसरणकर्ता अपने शरीर के नाश से पहले ही इतना समर्थ हो जाये कि अपने क्रोध (गुस्से) और अपने काम (भौतिक इक्छाओ) से उत्पन्न वेग को सह जाए वही योगी या अपने क्षेत्र में सफल, सुखी होगा क्रोध और काम कितना नुकसान दे सकते है हम सभी इससे परिचित है।
The Geeta Lesson 4 to 5
- The Geeta Lesson 01
- The Geeta Lesson 02
- The Geeta Lesson 03
The Geeta Lesson 4 to 5
निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः।
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्॥ श्लोक 21
जिसका अंतःकरण और इन्द्रियों सहित शरीर जीता हुआ है और जिसने समस्त भोगों की सामग्री का परित्याग कर दिया है, ऐसा आशारहित पुरुष केवल शरीर-संबंधी कर्म करता हुआ भी पापों को नहीं प्राप्त होता ।
व्यवहारिक अर्थ : महत्वपूर्ण व्यवहारिक श्लोक जिसका अंतः करण और इंद्रियों सहित शरीर जीता हुआ है जिसने समस्त भोगों की सामग्री का परित्याग कर दिया है, ऐसा अशारहित पुरुष केवल शरीर-सम्बन्धी कर्म करता हुआ पापो को प्राप्त नही होता श्लोक का अर्थ कांच की तरह ही व्यवहारिक व पारदर्शी है ।
श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप।
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते॥ श्लोक 33
हे परंतप अर्जुन! द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञान यज्ञ अत्यन्त श्रेष्ठ है तथा यावन्मात्र सम्पूर्ण कर्म ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं ।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में भगवान ज्ञान यज्ञ या ज्ञान प्राप्ति के लिए किए गए परिश्रम को अन्य किसी भी यज्ञ से श्रेष्ठ बता रहे है । सारे कर्म ज्ञान में समाप्त हो जाते है ।
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः॥ श्लोक 34
उस ज्ञान को तू तत्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ, उनको भलीभाँति दण्डवत् प्रणाम करने से, उनकी सेवा करने से और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्म तत्व को भलीभाँति जानने वाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्वज्ञान का उपदेश करेंगे ।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में योगेश्वर गुरुजनों के प्रति व्हवहार और उनके महत्व की शिक्षा दे रहे है उन्हें दण्डवत प्रणाम करने से और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे परमात्मा तत्व को भलीभाँति जानने वाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्वज्ञान का उपदेश देंगे ।
अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि॥ श्लोक 36
यदि तू अन्य सब पापियों से भी अधिक पाप करने वाला है, तो भी तू ज्ञान रूप नौका द्वारा निःसंदेह सम्पूर्ण पाप-समुद्र से भलीभाँति तर जाएगा ।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में प्रभु कृष्ण कह रहे है, की अगर तू सब पापियों से अधिक पाप करने वाला भी हो तो भी तू ज्ञान रूप नाव द्वारा नि:सन्देह सम्पूर्ण पाप समुद्र से भलीभांति तर जाएगा । श्लोक में भगवान ने ज्ञान के महत्व को प्रतिपादित किया है
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा॥ श्लोक 37
क्योंकि हे अर्जुन! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनों को भस्ममय कर देता है, वैसे ही ज्ञानरूप अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्ममय कर देता है।
व्यवहारिक अर्थ :ज्ञान की महत्वता पुनः प्रतिपादित करते हुए भगवान कहते है जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनों को भस्ममय कर देता है, वैसे ही ज्ञानरूप अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्ममय कर देता है । ज्ञान की शक्ति बताई है प्रभु ने The Geeta Lesson 4 to 5
न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति॥ श्लोक 38
इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसंदेह कुछ भी नहीं है। उस ज्ञान को कितने ही काल से कर्मयोग द्वारा शुद्धान्तःकरण हुआ मनुष्य अपने-आप ही आत्मा में पा लेता है ।
व्यवहारिक अर्थ : ज्ञान को भगवान ने संसार मे सबसे ज्यादा पवित्र करने वाला कहा है और उस ज्ञान को मनुष्य कितने ही काल से कर्मयोग द्वारा शुद्धान्त: करण करता हुआ मनुष्य अपने आप ही आत्मा में पा लेता है । इस श्लोक में भगवान ज्ञान की महत्वता और शुद्धान्: करण या साफ मन कि बात कही है जो व्यवहारिक है ।
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्धवा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥ श्लोक 39
जितेन्द्रिय, साधनपरायण और श्रद्धावान मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होता है तथा ज्ञान को प्राप्त होकर वह बिना विलम्ब के- तत्काल ही भगवत्प्राप्तिरूप परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है ।
व्यवहारिक अर्थ : भगवान इस श्लोक में बता रहे है ज्ञान किसे प्राप्त होता है जितेंद्रिय, साधनपरायण और श्रद्धावान मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होता है तथा ज्ञान को प्राप्त होकर तत्काल ही भगवत्प्राप्तिरूप परम शांति या सफलता को प्राप्त हो जाता है आप जानते है सफलता प्राप्ति में ज्ञान का महत्व
अज्ञश्चश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः॥ श्लोक 40
विवेकहीन और श्रद्धारहित संशययुक्त मनुष्य परमार्थ से अवश्य भ्रष्ट हो जाता है। ऐसे संशययुक्त मनुष्य के लिए न यह लोक है, न परलोक है और न सुख ही है ।
व्यवहारिक अर्थ : विवेकहीन और श्रद्धारहित मनुष्य परमार्थ से अवश्य भृष्ट हो जाता है । ऐसे संशययुक्त मनुष्य के लिए न यह लोक है, न परलोक है और न सुख ही है । इस श्लोक का एक एक शब्द पारदर्शी है ।
इस अध्याय में भगवान ने ज्ञान का महत्व बताया है हर सफलता जिस क्षेत्र में हो उसमे ज्ञान का महत्व हम सभी जानते है । The Geeta Lesson 4 to 5
ज्ञेयः स नित्यसन्न्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते॥ श्लोक 3
हे अर्जुन! जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा करता है, वह कर्मयोगी सदा संन्यासी ही समझने योग्य है क्योंकि राग-द्वेषादि द्वंद्वों से रहित पुरुष सुखपूर्वक संसार बंधन से मुक्त हो जाता है।
व्यवहारिक अर्थ : हे अर्जुन जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है और न ही किसी की आकांक्षा करता है वह कर्मयोगी सदा सन्यासी (अपने कर्म या काम मे रमे रहने वाला ) समझने योग्य है क्योंकि राग-द्वेष द्वन्दों से रहित पुरुष सुखपूर्वक संसार बंधन से मुक्त हो जाता है अगर राग-द्वेष की भावना हो तो ऊर्जा अन्य दिशा में बहती है और लक्ष्य से ध्यान भटकता है ।
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा॥ श्लोक 10
जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके और आसक्ति को त्याग कर कर्म करता है, वह पुरुष जल से कमल के पत्ते की भाँति पाप से लिप्त नहीं होता ।
व्यवहारिक अर्थ : जो मनुष्य अपने सभी कार्य परमात्मा में अपर्ण करके ये आप करवा रहे है इस भाव के साथ कर्म या अपना काम करता है वह जल से कमल के पत्ते की भाँति पाप से लिप्त नहीं होता ।
इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः॥
श्लोक 19 The Geeta Lesson 4 to 5
जिनका मन समभाव में स्थित है, उनके द्वारा इस जीवित अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार जीत लिया गया है क्योंकि सच्चिदानन्दघन परमात्मा निर्दोष और सम है, इससे वे सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही स्थित हैं ।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में योगेश्वर कहते है जिसका मन या दिमाग समभाव में स्थित है अर्थात एक सा उसने जीवित अवस्था मे ही सम्पूर्ण संसार जीत लिया है क्योकि सच्चिदाआंनद परमात्मा निर्दोष और सम है, समभाव ये अवस्था कठिन जरूर है पर सम्भव है ।
न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्।
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः॥ श्लोक 20
जो पुरुष प्रिय को प्राप्त होकर हर्षित नहीं हो और अप्रिय को प्राप्त होकर उद्विग्न न हो, वह स्थिरबुद्धि, संशयरहित, ब्रह्मवेत्ता पुरुष सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्मा में एकीभाव से नित्य स्थित है ।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में योगेश्वर कह रहे है कि जो प्रिय को पाकर खुश अप्रिय को पाकर दुःखी ना हो वह संशय रहित जिसे कोई शंका ना हो वह स्थिरबुद्धि ब्रह्मवेत्ता या ज्ञानी मनुष्य परमात्मा या अपनी उच्च अवस्था सफलता आदि अन्य में स्थित है
शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः॥ श्लोक 23
जो साधक इस मनुष्य शरीर में, शरीर का नाश होने से पहले-पहले ही काम-क्रोध से उत्पन्न होने वाले वेग को सहन करने में समर्थ हो जाता है, वही पुरुष योगी है और वही सुखी है ।
व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में योगेश्वर कह रहे है जो साधक, भक्त या इस मार्ग गीता का अनुसरणकर्ता अपने शरीर के नाश से पहले ही इतना समर्थ हो जाये कि अपने क्रोध (गुस्से) और अपने काम (भौतिक इक्छाओ) से उत्पन्न वेग को सह जाए वही योगी या अपने क्षेत्र में सफल, सुखी होगा क्रोध और काम कितना नुकसान दे सकते है हम सभी इससे परिचित है।
The Geeta Lesson 4 to 5
Bhawani Singh
Young-Energetic Person, Animation Creator, Owner Of माँ शक्ति Creation-Graphics/3D/Web Design Services