The Geeta Lesson 9 to 12

  • अध्याय : 9 परम गुहा ज्ञान का व्यवहारिक ज्ञान

 श्रीभगवानुवाच

इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे।

ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्‌॥ श्लोक 1

श्री भगवान बोले- तुझ दोषदृष्टिरहित भक्त के लिए इस परम गोपनीय विज्ञान सहित ज्ञान को पुनः भली भाँति कहूँगा, जिसको जानकर तू दुःखरूप संसार से मुक्त हो जाएगा ।

व्यवहारिक अर्थ :  महत्वपूर्ण श्लोक इस श्लोक में योगेश्वर श्री कृष्ण इस गीता ज्ञान को पुनः विज्ञान नही बल्कि गोपनीय विज्ञान, ज्ञान कह रहे है और ये भी कह रहे है इसे जानने के बाद तू दुःखरूप संसार से मुक्त हो जाएगा । तो क्यो ना हम सब भी इसे जाने और दुःख, तकलीफों से मुक्त हो जाए ।

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राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्‌।

प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्‌॥ श्लोक 2

यह विज्ञान सहित ज्ञान सब विद्याओं का राजा, सब गोपनीयों का राजा, अति पवित्र, अति उत्तम, प्रत्यक्ष फलवाला, धर्मयुक्त, साधन करने में बड़ा सुगम और अविनाशी है ।

व्यवहारिक अर्थ : *अति महत्वपूर्ण श्लोक* इसमें परमेश्वर इस गीता ज्ञान को विज्ञान, सब विद्याओं का राजा, सब गोपनीयों का राजा या अत्यंत गुप्त, अति पवित्र, अति उत्तम, प्रत्यक्ष फल देने वाला, धर्मयुक्त, साधन करने में बड़ा सुगम और अविनाशी जिसका नाश ना हो कहा है । 

  • अध्याय : 10 भगवान का ऐश्वर्य का व्यवहारिक ज्ञान

बुद्धिर्ज्ञानमसम्मोहः क्षमा सत्यं दमः शमः।

सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च॥ श्लोक 4

निश्चय करने की शक्ति, यथार्थ ज्ञान, असम्मूढ़ता, क्षमा, सत्य, इंद्रियों का वश में करना, मन का निग्रह तथा सुख-दुःख, उत्पत्ति-प्रलय और भय-अभय तथा ।

व्यवहारिक अर्थ :  निश्चय करने की शक्ति, यथार्थ ज्ञान, असम्मुढता, क्षमा, सत्य, इंद्रियों का वश में करना, मन का निग्रह तथा सुख-दुःख, उत्पत्ति-प्रलय और भय-अभय तथा ।

अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः।

भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः॥ श्लोक 5

अहिंसा, समता, संतोष तप (स्वधर्म के आचरण से इंद्रियादि को तपाकर शुद्ध करने का नाम तप है), दान, कीर्ति और अपकीर्ति- ऐसे ये प्राणियों के नाना प्रकार के भाव मुझसे ही होते हैं ।

व्यवहारिक अर्थ :  अहिंसा, समता, संतोष तप, दान, कीर्ति और अपकीर्ति – ऐसे ये प्राणियों के नाना प्रकार के भाव मुझसे ही होते है । इस श्लोक और ऊपर के श्लोक में भगवान समझा रहे है कि सारे भाव मुझसे ही है । 

दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम्‌।

मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम्‌॥ श्लोक 38

मैं दमन करने वालों का दंड अर्थात्‌ दमन करने की शक्ति हूँ, जीतने की इच्छावालों की नीति हूँ, गुप्त रखने योग्य भावों का रक्षक मौन हूँ और ज्ञानवानों का तत्त्वज्ञान मैं ही हूँ ।

व्यवहारिक अर्थ :  योगेश्वर बता रहे है कि वो कौन है संसारियों के लिए दमन करने वालों का दंड अर्थात दमन करने की शक्ति, जीतने की इक्छावालों की नीति हूं गुप्त रखने योग्य भावों का रक्षक मौन हूँ और ज्ञानवानों का तत्वज्ञान में ही हूं ।  The Geeta Lesson 9 to 12

  • अध्याय : 12 भक्तियोग का व्यवहारिक ज्ञान 

अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः।

सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान्‌॥ श्लोक 11

यदि मेरी प्राप्ति रूप योग के आश्रित होकर उपर्युक्त साधन को करने में भी तू असमर्थ है, तो मन-बुद्धि आदि पर विजय प्राप्त करने वाला होकर सब कर्मों के फल का त्याग कर ।

व्यवहारिक अर्थ : श्लोक में परमेश्वर श्री कृष्ण समझा रहे है, यदि मेरी प्राप्ति रूप योग के आश्रित होकर उपयुक्त साधन को करने में भी तू असमर्थ है, तो मन बुद्धि आदि पर विजय प्राप्त करने वाला होकर सब कर्मो के फल का त्याग कर इस श्लोक में योगेश्वर मन, बुद्धि पर विजय पाने वाला मतलब जिसने अपने दिमाग को जीत लिया हो वो बन ।

अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च।

निर्ममो निरहङ्‍कारः समदुःखसुखः क्षमी॥ श्लोक 13

जो पुरुष सब भूतों में द्वेष भाव से रहित, स्वार्थ रहित सबका प्रेमी और हेतु रहित दयालु है तथा ममता से रहित, अहंकार से रहित, सुख-दुःखों की प्राप्ति में सम और क्षमावान है ।

व्यवहारिक अर्थ : जो मनुष्य सब भूतों अर्थात जीवों में द्वेष भाव से रहित स्वार्थ रहित, सबका प्रेमी और हेतु रहित दयालु है तथा ममता से रहित, अहंकार से रहित, सुख – दुःख की प्राप्ति में सम एक जैसा और क्षमावान या माफ करने वाला हो । 

संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढ़निश्चयः।

मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः॥ श्लोक 14

अपराध करने वाले को भी अभय देने वाला है तथा जो योगी निरन्तर संतुष्ट है, मन-इन्द्रियों सहित शरीर को वश में किए हुए है और मुझमें दृढ़ निश्चय वाला है- वह मुझमें अर्पण किए हुए मन-बुद्धिवाला मेरा भक्त मुझको प्रिय है ।

व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में और इसके पहले वाले श्लोक में योगेश्वर बता रहे है कौन उन्हें प्रिय है । अपराध करने वालों को अभयदान देने वाला तथा जो योगी निरन्तर संतुष्ट है, मन इंद्रियों सहित शरीर को वश में किए हुए है और मुझमें दृढ निश्चय वाला है वह मुझमें अर्पण किए हुए मन-बुद्धिवाला मेरा भक्त मुझको प्रिय है।

यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः।

हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः॥ श्लोक 15

जिससे कोई भी जीव उद्वेग को प्राप्त नहीं होता और जो स्वयं भी किसी जीव से उद्वेग को प्राप्त नहीं होता तथा जो हर्ष, अमर्ष (दूसरे की उन्नति को देखकर संताप होने का नाम ‘अमर्ष’ है), भय और उद्वेगादि से रहित है वह भक्त मुझको प्रिय है ।

व्यवहारिक अर्थ : जिससे कोई भी उद्वेग या डर, कष्ट को प्राप्त नही होता तथा जो स्वयं भी किसी जीव से उद्वेग को प्राप्त नही होता तथा जो हर्ष, अमर्ष (दूसरे की उन्नति को देखकर संताप होने का नाम ‘अमर्ष’ है), भय और उद्वेग से रहित है वह भक्त मुझको प्रिय है ।

अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः।

सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्तः स मे प्रियः॥ श्लोक 16

जो पुरुष आकांक्षा से रहित, बाहर-भीतर से शुद्ध चतुर, पक्षपात से रहित और दुःखों से छूटा हुआ है- वह सब आरम्भों का त्यागी मेरा भक्त मुझको प्रिय है ।

व्यवहारिक अर्थ : इस श्लोक में प्रभु पुनः बता रहे है कि कौन उन्हें प्रिय है और कौन नही जो आकांक्षा से रहित, बाहर -भीतर से शुद्ध चतुर पक्षपात से रहित और दुःखों से छुटा हुआ है वह त्यागी भक्त मुझको प्रिय है । The Geeta Lesson 9 to 12

यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्‍क्षति।

शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः॥ श्लोक 17

जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना करता है तथा जो शुभ और अशुभ सम्पूर्ण कर्मों का त्यागी है- वह भक्तियुक्त पुरुष मुझको प्रिय है ।

व्यवहारिक अर्थ : परमेश्वर को वह प्रिय है जो न हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोक करता है, न कामना है तथा जो शुभ और अशुभ सम्पूर्ण कर्मो का त्यागी है वह भक्तियुक्त पुरुष मुझको प्रिय है । 

समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः।

शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्‍गविवर्जितः॥ श्लोक 18

जो शत्रु-मित्र में और मान-अपमान में सम है तथा सर्दी, गर्मी और सुख-दुःखादि द्वंद्वों में सम है और आसक्ति से रहित है ।

व्यवहारिक अर्थ : जो शत्रु-मित्र में और मान-अपमान में सम है तथा सर्दी, गर्मी और सुख – दुःख आदि द्वन्दों में सम है और आसत्ती से रहित है ।

तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित्‌।

अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः॥ श्लोक 19

जो निंदा-स्तुति को समान समझने वाला, मननशील और जिस किसी प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा ही संतुष्ट है और रहने के स्थान में ममता और आसक्ति से रहित है- वह स्थिरबुद्धि भक्तिमान पुरुष मुझको प्रिय है । The Geeta Lesson 9 to 12

व्यवहारिक अर्थ : जो निंदा – स्तुति को समान समझने वाला, मननशील और जिस किसी प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा ही संतुष्ट है और रहने के स्थान में ममता और आसत्ति से रहित है वह स्थिरबुद्धि भक्तिमान पुरुष मुझको प्रिय है ।

The Geeta Lesson 9 to 12

  1. The Geeta Lesson 01
  2. The Geeta Lesson 02
  3. The Geeta Lesson 03
  4. The Geeta Lesson 4 to 5
  5. The Geeta Lesson 6 To 7
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